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सूत्रकृतांग
१८७ तृतीय उद्देशक में सब मिल कर २१ गाथाएं हैं। इनमें इस प्रकार के उपसर्गों का वर्णन है जो निर्बल मनवाले श्रमण की वासना द्वारा उत्पन्न होते हैं तथा अन्य मतवाले लोगों के आक्षेपों के पात्र होते हैं । निर्बल भिक्षु के मन में किस प्रकार के संकल्प-विकल्प उत्पन्न होते हैं, इसका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत उद्देशक में है। बुद्धिमान् भिक्षु इन सब संकल्प-विकल्पों में ऊपर उठ कर अपने मार्ग में स्थिर रहते हैं जबकि अज्ञानी व मूढ़ भिक्षु अपने मार्ग से च्युत हो जाते हैं । इस उद्देशक में आनेवाले अन्यमतियों से चूर्णिकार व वृत्तिकार का तात्पर्य आजीवकों एवं दिगम्बर परम्परा के भिक्षुओं से है ( आजोविकप्रायाः अन्यतोथिकाः, बोडिगा-चूर्णि)। जब संयत भिक्षुओं के सामने किसी के साथ वादविवाद करने का प्रसंग उपस्थित हो तब उन्हें किसी को विरोधभाव व क्लेश न हो इस ढंग से तर्क व युक्ति का बहुगुणयुक्त मार्ग स्वीकार करना चाहिए । प्रस्तुत उद्देशक की सोलहवीं गाथा में कहा गया है कि प्रतिवादियों की यह मान्यता है कि दानादि धर्म की प्रज्ञापना आरंभ-समारंभ में पड़े हुए गृहस्थों की शुद्धि के लिए है, भिक्षुओं के लिए नहीं, ठीक नहीं । पूर्वपुरुषों ने इसी दृष्टि से अर्थात् गृहस्थों की ही शुद्धि की दृष्टि से दानादिक की कोई निरूपणा नहीं की। चूर्णिकार ने यहां पर केवल इतना ही लिखा है कि इस प्रवृत्ति का पूर्व में कोई निषेध नहीं किया गया है जबकि वृत्तिकार ने इस कथन को थोड़ा सा बढ़ाया है और कहा है कि सर्वज्ञ पुरुषों ने प्राचीन काल में ऐसी कोई बात नहीं कही है। यह चर्चा वृत्तिकार के कथनानुसार दिगम्बरपक्षीय भिक्षुओं और श्वेताम्बर परम्परा के साधुओं के बीच है । वृत्तिकार का यह कथन उपयुक्त प्रतीत होता है ।
चतुर्थ उद्देशक में सब मिल कर २२ गाथाएं हैं। इस उद्देशक के विषय के सम्बन्ध में नियुक्तिकार कहते हैं कि कुछ श्रमण कुतर्क अर्थात् हेत्वाभास द्वारा अनाचाररूप प्रवृत्तियों को आचार में समाविष्ट करने का प्रयत्न करते हैं एवं जानबूझकर अनाचार में फंसने का उपसर्ग उत्पन्न करते हैं। प्रस्तुत उद्देशक में इसी प्रकार के उपसर्गों का वर्णन है।
प्रथम चार गाथाओं में बताया गया है कि कुछ शिथिल श्रमण यों कहने लगते हैं कि प्राचीन काल में कुछ ऐसे भी तपस्वी हुए हैं जो उपवासादि तप न करते, उष्ण पानी न पोते, फल-फूल आदि खाते फिर भी उन्हें जैन प्रवचन में महापुरुष के रूप में स्वीकार किया गया है । इतना ही नहीं, इन्हें मुक्त भो माना गया है। इनके नाम ये हैंः राममुत्त, बाहुअ, नारायणरिसि अथवा तारायणरिसि, आसिलदेवल, दीवायणमहारिसि और पारासर । इन पुरुषों का महापुरुष एवं अर्हत् के रूप में ऋषिभाषित नामक अति प्राचीन जैनप्रवचनानुसारी श्रुत में स्पष्ट
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