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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास उपसर्गों में फंसने वाला नरकगामी बनता है। नरकविभक्ति अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में २७ गाथाएँ हैं और द्वितीय में २५ । इनमें यह बताया गया है कि नरक के विभागों में अर्थात् नरक के भिन्न भिन्न स्थानों में को-कैसे भयंकर कष्ट भोगने पड़ते हैं एवं कैसी-कैसी असाधारण यातनाएँ सहनी पड़ती हैं ? जो लोग पापी हैं-हिंसक हैं, असत्यभाषी हैं, चोर हैं, लुटेरे हैं, महापरिग्रही हैं, असदाचारी हैं उन्हें इस प्रकार के नरकवासों में जन्म लेना पड़ता है । नरक को इन भयंकर वेदनाओं को सुनकर धीर पुरुष जरा भी हिंसक प्रवृत्ति न करें, अपरिग्रही बनें एवं निर्लोभवत्ति का सेवन करें-यही इस अध्ययन का उद्देश्य है । वैदिक, बौद्ध व जैन इन तीनों परम्पराओं में नरक के महाभयों का वर्णन है। इससे प्रतीत होता है कि नरकविषयक यह कल्पना अति प्राचीन काल से चली आ रही है। योगसूत्र के व्यासभाष्य में छः महानरकों का वर्णन है । भागवत में अट्ठाईस नरक गिनाये गये हैं। बौद्ध परम्परा के पिटकग्रन्थरूप सुत्तनिपात के कोकालिय नामक सुत्त में नरकों का वर्णन है। यह वर्णन प्रस्तुत अध्ययन के वर्णन से बहुत कुछ मिलता जुलता है। अभिधर्मकोश के तृतीय कोशस्थान के प्रारंभ में आठ नरकों के नाम दिये गये हैं । इन सब स्थलों को देखने से पता चलता है कि भारतीय परम्परा की तीनों शाखाओं का नरकवर्णन एक दूसरेसे काफी मिलता हआ है। इतना ही नहीं, उनकी शब्दावली भी बहुत-कुछ समान है।
वीरस्तव :
षष्ठ अध्ययन में वीर वर्धमान की स्तुति की गई है इसलिए इस अध्ययन का नाम वीरस्तव रखा गया है। इसमें २९ गाथाएँ हैं। भगवान् महावीर का मूल नाम तो वर्धमान है किन्तु उनकी असाधारण वीरता के कारण उनकी ख्याति वीर अथवा महावीर के रूप में हुई है। इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन में प्रख्यात नाम 'महावीर' द्वारा स्तुति की गई है। इस अध्ययन की नियुक्ति में स्तव अथवा स्तुति कैसी-कैसी प्रवृत्ति द्वारा होती है उसकी बाह्य व आभ्यन्तरिक दोनों रीतियां बताई गई हैं। इस अध्ययन में भी पहले के अध्ययनों की भांति चूर्णिसंमतवाचना एवं वृत्तिसंमतवाचना में काफी अन्तर है। तीसरी गाथा में महावीर को जिन विशेषणों द्वारा परिचित करवाया गया है वे ये हैं : खेयन्न, कुसल, आसुपन्न, अणंतनाणो, अणंतदंसी। खेयन्न अर्थात् क्षेत्रज्ञ अथवा खेदज्ञ। क्षेत्रज्ञ का अर्थ है आत्मा के स्वरूप का यथावस्थित ज्ञान रखने वाला आत्मज्ञ अथवा क्षेत्र अर्थात् आकाश उसे जानने वाला अर्थात् लोकालोकरूप आकाश के स्वरूप का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ कहलाता है । खेदज्ञ का अर्थ है संसारियों के
खेद अर्थात् दुःख को जानने वाला । भगवद्गीता में क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग' नामक Jain Education International For Private & Personal Use Only
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