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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रेष्ठतमदर्शी, श्रेष्ठतमज्ञानदर्शनधर, अर्हत्, भगवान् और वैशालिक-विशाला नगरी में उत्पन्न । उपसर्ग :
तृतीय अध्ययन का नाम उपसर्गपरिज्ञा है। साधक जब अपनी साधना के लिए तत्पर होता है तब से लगाकर साधना के अन्त तक उसे अनेक प्रकार के विघ्नों का सामना करना पड़ता है। साधनाकाल में आने वाले इन विघ्नों, बाधाओं, विपत्तियों को उपसर्ग कहते हैं। वैसे ये उपसर्ग गिने नहीं जा सकते, फिर भी प्रस्तुत अध्ययन में इनमें से कुछ प्रतिकूल एवं अनुकूल उपसर्ग गिनाये गये हैं। इनसे इन विघ्नों को प्रकृति का पता लग सकता है । सच्चा साधक इस प्रकार के उपसर्गों को जीत कर वीतराग अथवा स्थितप्रज्ञ बनता है । यही सम्पूर्ण अध्ययन का सार है । इस अध्ययन के चार उद्देशक हैं । प्रथम उद्देशक में १७ माथाएं हैं, जिनमें भिक्षावृत्ति, शीत, ताप, भूख प्यास, डांस, मच्छर, अस्नान, अपमान, प्रतिकूलशय्या, केशलोच, आजीवनब्रह्मचर्य आदि प्रतिकूल उपसर्गों का वर्णन है । मनुष्य को जब तक संग्राम में जिसे जीतना है उसके बल का पता नहीं होता तब तक वह अपने को शूर समझता है और कहता है कि इसमें क्या ? उसे तो मैं एक चुटकी में साफ कर दूंगा। मेरे सामने वह तो एक मच्छर है । किन्तु जब शत्रु सामने आता है तब उसके होश गायब हो जाते हैं। सूत्रकार ने इस तथ्य को समझाने के लिए शिशुपाल और कृष्ण का उदाहरण दिया है । यहां कृष्ण के लिए 'महारथ' शब्द का प्रयोग हुआ है। चूर्णिकार ने महारथ का अर्थ केशव ( कृष्ण ) किया है। साधक के लिये उपसर्गों को जीतना उतना ही कठिन है जितना कि शिशुपाल के लिए कृष्ण को जीतना । उपसर्गों की चपेट में आनेवाले ढोलेढाले व्यक्ति की तो श्रद्धा ही समाप्त हो जाती है। जिस प्रकार निर्बल स्त्री अपने ऊपर आपत्ति आने पर अपने मां-बाप व पोहर के लोगों को याद करती है उसी प्रकार निर्बल साधक अपने ऊपर उपसर्गों का आक्रमण होने पर अपनी रक्षा के लिए स्वजनों को याद करने लगता है।
द्वितीय उद्देशक में २२ गाथाएँ हैं। इनमें स्वजनों अर्थात् माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, पति-पत्नी आदि द्वारा होने वाले उपसर्गों का वर्णन है। ये उपसर्ग प्रतिकूल नहीं अपितु अनुकूल होते हैं। जिस प्रकार साधक प्रतिकूल उपसर्गों से भयभीत होकर अपना मार्ग छोड़ सकता है उसी प्रकार अनुकूल उपसर्गों के आकर्षण के कारण भी पथभ्रष्ट हो सकता है । इस तथ्य को समझाने के लिए अनेक उपमाएं दी गई हैं।
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