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वेयालिय :
द्वितीय अध्ययन का नाम वेयालिय है । नियुक्तिकार, चूर्णिकार तथा वृत्तिकार इसका अर्थ वैदारिक तथा वैतालीय के रूप में करते हैं । विदार का अर्थ है विनाश । यहाँ रागद्वेषरूप संस्कारों का विनाश विवक्षित है। जिस अध्ययन में रागद्वेष के विदार का वर्णन हो उसका नाम है वैदारिक । वैतालीय नामक एक छंद है । जो अध्ययन वैतालीय छंद में है उसका नाम है वैतालीय । प्रस्तुत अध्ययन के नाम के इन दो अर्थों में से वैतालीय छंद वाला अर्थं विशेष उपयुक्त प्रतीत होता है । वैदारिक अर्थपरक नाम अतिव्याप्त है क्योंकि यह अर्थं तो अन्य अध्ययनों अथवा ग्रन्थों से भी सम्बद्ध है अतः केवल इसी अध्ययन को वैदारिक नाम देना उपयुक्त नहीं ।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रस्तुत अध्ययन में तीन उद्देशक हैं जिनमें वैराग्यपोषक वर्णन के साथ श्रमणधर्म का प्रतिपादन है । प्रथम उद्देशक की पांचवीं गाथा में बताया गया है कि देव, गांधर्व, राक्षस, नाग, राजा, सेठ, ब्राह्मण आदि सब दुःखपूर्वक मृत्यु को प्राप्त होते हैं । मृत्यु के लिए सब जीव समान हैं। उसके सामने किसी का प्रभाव काम नहीं करता । नवीं गाथा में सूत्रकार कहते हैं कि साधक भले ही नग्न रहता हो व निरन्तर मास-मास के उपवास करता हो किन्तु यदि वह दम्भी है तो उसका यह सब आचरण खोखला है ।
आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में 'पणया वीरा महावीहि' ऐसा एक खण्डित वाक्य है । सूत्रकृतांग के प्रस्तुत अध्ययन के प्रथम उद्देशक की इक्कीसवीं गाथा में इस वाक्यवाला पूरा पद्य है
:
तम्हा दवि इक्ख पंडिए पावाओ विरतेऽभिणिव्वुडे । पणया वीरा महावीहि सिद्धिपहं णेआउ धुवं ॥
इस उद्देशक की वृत्तिसम्मत गाथाओं और चूर्णिसम्मत गाथाओं में अत्यधिक पाठभेद है । पाठभेद के कुछ नमूने ये हैं
:――
वृत्तिगत पाठ
सयमेव कडेहिं गाहइ
णो तस्स मुच्चेज्जपुट्ठयं ॥ ४ ॥ कामेहि य संथवेहि गिद्धा कम्मसहा कालेण जंतवो || ६ || जे इह मायाइ मिज्जई आगंता गब्भायऽणंतसो ॥ १० ॥
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चूर्णिगत पाठ यमेव कडेऽभिगाह णो तेणं मुच्चे अट्ठवं ॥ ४ ॥ कामेहिय संथवेहि य कम्मसहे कालेण जंतवो ॥ ६ ॥ जइ विह मायादि मिज्जती आगंता गब्भादणंतसो ॥ ९ ॥
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