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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है। यह तत्कालीन वातावरण एवं भक्ति का सूचक है । ललितविस्तर आदि बौद्ध ग्रन्थों में भी भगवान बुद्ध के विषय में जैन ग्रन्थों के ही समान अनेक अतिशयोक्तिपूर्ण उल्लेख उपलब्ध हैं । महावीर के लिए प्रयुक्त सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंतज्ञानी, केवली आदि शब्द आचार्य हरिभद्र के कथनानुसार भगवान् के आत्मप्रभाव, वीतरागता एवं क्रान्तदर्शिता-दूरदर्शिता के सूचक है। बाद में मिस अर्थ में ये शब्द रूढ हुए हैं एवं शास्त्रार्थ का विषय बने हैं उस अर्थ में वे उनके लिए प्रयुक्त हुए प्रतीत नहीं होते । प्रत्येक महापुरुष जब सामान्य चर्या से ऊंचा उठ जाता हैअसाधारण जीवनचर्या का पालन करने लगता है तब भी वह मनुष्य ही होता है । तथापि लोग उसके लिए लोकोत्तर शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ कर देते हैं और इस प्रकार अपनी भक्ति का प्रदर्शन करते हैं। उत्तम कोटि के विचारक उस महापुरुष का यथाशक्ति अनुसरण करते हैं जब कि सामान्य लोग लोकोत्तर शब्दों द्वारा उनका स्तवन करते हैं, पूजन करते हैं, महिमा गाकर प्रसन्न होते हैं । कुछ सुभाषित :
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की समीक्षा समाप्त करने के पूर्व उसमें आने वाले कुछ सूक्त अर्थसहित नीचे दिये जाने आवश्यक हैं । वे इस प्रकार है :१. पणया वीरा महावीहिं .. वीर पुरुष महामार्ग की ओर अग्र
सर होते हैं। २. जाए सद्धाए निक्खंतो तमेव जिस श्रद्धा के साथ निकला उसी अणुपालिया
का पालन कर। ३. धीरे मुहुत्तमवि नो पमायए "" धीर पुरुष एक मुहूर्त के लिए भी
प्रमाद न करे । ४. वओ अच्चेइ जोवणं च .... वय चला जा रहा है और यौवन
भी। ५. खणं जाणाहि पंडिए
हे पंडित ! क्षण को-समय को
समझ। ६. सम्वे पाणा पियाउया
सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सुहसाया दुक्खपडिकूला
सुख अच्छा लगता है, दुःख अच्छा अप्पियवहा पियजीविणो
नहीं लगता, वध अप्रिय है, जीवन जीविउकामा
प्रिय है, जीने की इच्छा है । ७. सव्वेसिं जीविअंपियं
सबको जीवन प्रिय है।
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