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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय: आचारांग
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उच्चारणाद् इहापि तथैव उच्चारितः इति' ( आचारांगवृत्तिः पृ० २४२ ) अर्थात् मगध देश में ग्वालिनें भी 'अकस्मात् ' का प्रयोग करती हैं । अतः यहाँ भी इस शब्द का वैसा ही प्रयोग हुआ है ।
मुण्डकोपनिषद् के ( प्रथम मुण्डक, द्वितीय खण्ड, श्लोक ९ ) ' यत् धर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात् तेन आतुराः क्षीणलोकाश्चवन्ते' इस पद्य में जिस अर्थ में 'आतुर' शब्द है उसी अर्थ में आचारांग का आउर - आतुर शब्द भी है । 'लोकभाषा में 'कामातुर' का प्रयोग इसी प्रकार का है ।
लोगों में जो-जो वस्तुएँ शस्त्र के रूप में प्रसिद्ध हैं उनके अतिरिक्त अन्य पदार्थों अर्थात् भावों के लिए भी शस्त्र शब्द का प्रयोग होता है । आचारांग में राग, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह एवं तज्जन्य समस्त प्रवृत्तियों को सत्थ - शस्त्ररूप कहा गया है । अन्य किसी शास्त्र में इस अर्थ में 'शस्त्र' शब्द का प्रयोग दिखाई नहीं देता । बौद्धपिटकों में जिस अर्थ में 'मार' शब्द का प्रयोग हुआ है उसी अर्थ में आचारांग में भी 'मार' शब्द प्रयुक्त है । सुत्तनिपात के कप्पमाणवपुच्छा सुत्त के चतुर्थ पद्य व भद्रावुधमाणवपुच्छा सुत्त के तृतीय पद्य में भगवान् बुद्ध ने 'मार' का स्वरूप स्पष्ट समझाया है । लोकभाषा में जिसे 'शैतान' कहते हैं वही 'मार' है । सर्व प्रकार का आलंभन शैतान की प्रेरणा का ही कार्य है । सूत्रकार ने इस तथ्य का प्रतिपादन 'मार' शब्द के द्वारा किया है । इसी प्रकार 'नरअ' - 'नरक' शब्द का प्रयोग भी सर्व प्रकार के आलंभन के लिए किया गया है । निरालंब उपनिषद् में बंध, मोक्ष, स्वर्ग, नरक आदि अनेक शब्दों की व्याख्या की गई है । उसमें नरक की व्याख्या इस प्रकार है : 'असत्संसारविषयजनसंसर्ग 'एव नरकः' अर्थात् असत् संसार, उसके विषय एवं असज्जनों का संसर्ग ही नरक है । यहाँ सब प्रकार के आलंभन को 'नरक' शब्द से निर्दिष्ट किया है । इस प्रकार 'नरक' शब्द का जो अर्थ उपनिषद् को अभीष्ट है वही आचारांग को भीअभीष्ट है ।
आचारांग में नियागपडिवन्न' नियागप्रतिपन्न ( अ. १, उ. ३ ) पद में 'नियाग' शब्द का प्रयोग है । याग व नियाग पर्यायवाची शब्द हैं जिनका अर्थ है यज्ञ । इन शब्दों का प्रयोग वैदिक परम्परा में विशेष होता है । जैन परम्परा में 'नियाग' शब्द का अर्थ भिन्न प्रकार से किया गया है । आचारांग - वृत्तिकार के शब्दों में 'यजनं यागः नियतो निश्चितो वा यागः नियागो मोक्षमार्गः संगतार्थत्वाद् धातोः - सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गतं संगतम् इति तं नियागं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मोक्षमार्ग प्रतिपन्नः ' ( आचारांग वृत्ति, पृ० ३८ ) अर्थात् जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र की संगति हो वह मार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग नियाग है । मूलसूत्र में
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