________________
अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
१४९ वीर अथवा महावीर कहे जाते हैं । 'वीर' व 'महावीर' शब्दों का अर्थ इन दोनों रूपों में समझा जा सकता है ।
इस सूत्र में प्रयुक्त 'आरिय' व 'अणारिय' शब्दों का अर्थ व्यापक रूप में समझना चाहिए । जो सम्यक् आचार-सम्पन्न हैं-अहिंसा का सर्वांगीण आचरण करने वाले हैं वे आरिय-आर्य हैं । जो वैसे नहीं हैं वे अणारिय-अनार्य हैं।
मेहावी ( मेधावी ), मइमं ( मतिमान् ), धीर, पंडिअ (पण्डित ), पासअ ( पश्यक ), वीर, कुसल ( कुशल ) माहण ( ब्राह्मण ), नाणी ( ज्ञानी ), परमचक्खु ( परमचक्षुष ), मुणि (मुनि), बुद्ध, भगवं ( भगवान् ), आसुपन्न ( आशुप्रज्ञ ), आययचक्खु ( आयतचक्षुष ) आदि शब्दों का प्रयोग प्रस्तुत सूत्र में कई बार हुआ है । इनका अर्थ बहुत स्पष्ट है । इन शब्दों को सुनते ही जो सामान्य बोध होता है वही इनका मुख्य अर्थ है और यही मुख्य अर्थ यहां बराबर संगत हो जाता है। ऐसा होते हुए भी चूर्णिकार तथा वृत्तिकार ने इन शब्दों का जैन परिभाषा के अनुसार विशिष्ट अर्थ किया है। उदाहरण के लिए पासअ ( पश्यकद्रष्टा ) का अर्थ सर्वज्ञ अथवा केवली, कुसल ( कुशल ) का अर्थ तीर्थकर अथवा वर्धमान स्वामी, मुणि ( मुनि ) का अर्थ त्रिकालज्ञ अथवा तीर्थंकर किया है । जाणइ-पासइ का प्रयोग भाषाशैली के रूप में :
आचारांग में 'अकम्मा जाणइ पासइ' (५,६), 'आसुपन्नेण जाणया पासया' ( ७, १), 'अजाणओ अपासओ' ( ५, ४) आदि वाक्य आते हैं, जिनमें केवली के जानने व देखने का उल्लेख है । इस उल्लेख को लेकर प्राचीन ग्रन्थकारों ने सर्वज्ञ के ज्ञान व दर्शन के क्रमाक्रम के विषय में भारी विवाद खड़ा किया है और जिसके कारण एक आगमिक पक्ष व दूसरा ताकिक पक्ष इस प्रकार के दो पक्ष भी पैदा हो गये हैं। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि 'जाणइ' व 'पासइ' ये दो क्रियापद केवल भाषाशैली-बोलने की एक शैली के प्रतीक हैं। कहने वाले के मन में ज्ञान व दर्शन के क्रम-अक्रम का कोई विचार नहीं रहा है । जैसे अन्यत्र ‘पन्नवेमि परूवेमि भासेमि' आदि क्रियापदों का समानार्थ में प्रयोग हुआ है वैसे ही यहाँ भी 'जाणइ पासइ' रूप युगल क्रियापद समानार्थ में प्रयुक्त हुए हैं । जो मनुष्य केवली नहीं है अर्थात् छदमस्थ है उसके लिए भी 'जाणइ पासइ' अथवा 'अजाणओ अपासओ' का प्रयोग होता है। दर्शन ज्ञान के क्रम के अनुसार तो पहले ‘पासइ' अथवा 'अपासओ' और बाद में 'जाणइ' अथवा 'अजाणओ' का प्रयोग होना चाहिए किन्तु ये वचन इस प्रकार के किसी क्रम को दृष्टि में रखकर नहीं कहे गये हैं। यह तो बोलने की एक शैली मात्र है । बौद्ध ग्रन्थों में भी इस शैली का प्रयोग दिखाई देता है । मजिझमनिकाय के सव्वासव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org