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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आमगंध:
आचारांग के 'सव्वामगंधं परिन्नाय निरामगंधे परिव्वए' (२,५ ) वाक्य में यह निर्देश किया गया है कि मुनि को सर्व आमगंधों को जानकर उनका त्याग करना चाहिए एवं निरामगंध ही विचरण करना चाहिए । चर्णिकार अथवा वृत्तिकार ने आमगंध का व्युत्पत्तिपूर्वक अर्थ नहीं बताया है। उन्होंने केवल यही कहा है कि 'आमगंध' शब्द आहार से सम्बन्धित दोष का सूचक है । जो आहार उद्गम दोष से दूषित हो अथवा शुद्धि की दृष्टि से दोषयुक्त हो वह आमगंध कहा जाता है। सामान्यतया 'आम' का अर्थ होता है कच्चा और गंध का अर्थ होता है वास । जिसकी गंध आम हो वह आमगंध है । इस दृष्टि से जो आहारादि परिपक्व न हो अर्थात् जिसमें कच्चे की गन्ध मालूम होती हो वह आमगंध में समाविष्ट होता है। जैन भिक्षुओं के लिए इस प्रकार का आहार त्याज्य है । लक्षणा से 'आमगंध' शब्द इसी प्रकार के आहारादि सम्बन्धी अन्य दोषों का भी सूचक है।
बौद्धपिटक ग्रन्थ सुत्तनिपात में 'आमगंध' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें तिष्य नामक तापस और भगवान् बुद्ध के बीच 'आमगंध' के विचार के विषय में एक संवाद है। यह तापस कंद, मूल, फल जो कुछ भी धर्मानुसार मिलता है उसके द्वारा अपना निर्वाह करता है एवं तापसधर्म का पालन करता है। उसे भगवान् बुद्ध ने कहा कि हे तापस ! तू जो परप्रदत्त अथवा स्वोपार्जित कंद आदि ग्रहण करता है वह आमगंध है-अमेध्यवस्तु-अपवित्रपदार्थ है। यह सुनकर तिष्य ने बुद्ध से कहा कि हे ब्रह्मबन्धु ! तू स्वयं सुसंकृत-अच्छी तरह से पकाये हुए पक्षियों के मांस से युक्त चावल का भोजन करने वाला है और मैं कंद आदि खाने वाला हूँ। फिर भी तू मुझे तो आमगंधभोजी कहता है और अपने आपको निरामगंधभोजी । यह कैसे ? इसका उत्तर देते हुए बुद्ध कहते हैं कि प्राणघात, वध, छेद, चोरी, असत्य, वंचना, लूट, व्यभिचार आदि अनाचार आमगंध है. मांसभोजन आमगंध नहीं। असंयम, जिह्वालोलुपता, अपवित्र आचरण, नास्तिकता, विषमता तथा अविनय आमगंध है. मांसाहार आमगंध नहीं । इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में समस्त दोषों-आंतरिक व बाह्य दोषों को आमगंध कहा गया है।
आचारांग में प्रयुक्त 'आमगंध' का अर्थ आंतरिक दोष तो है ही, साथ ही मांसाहार भी है। जैन भिक्षुओं के लिये मांसाहार के त्याग का विधान है। 'सव्वामगंधं परिन्नाय' लिखने का वास्तविक अर्थ यही है कि बाह्य व आंतरिक
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