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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
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आचारांग के शब्द :
उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखते हुए आचारांग के कर्तृत्व का विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि इसमें आशय तो भगवान् महावीर का ही है । रही बात शब्दों की। हमारे सामने जो शब्द है वे किसके हैं ? इसका उत्तर इतना सरल नहीं है । या तो ये शब्द सुधर्मास्वामी के है या जम्बूस्वामी के हैं या उनके बाद होने वाले किसी सुविहित गीतार्थ के हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि ये शब्द इतने पैने हैं कि सुनते ही सीधे हृदय में घुस जाते हैं। इससे मालूम होता है कि ये किसी असाधारण अनुभवात्मक आध्यात्मिक पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए पुरुष के हृदय में से निकले हुए है एवं सुनने वाले ने भी इन्हें उसी निष्ठा से सुरक्षित रखा है। अतः इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि ये शब्द सुधर्मास्वामी की वाचना का अनुसरण करने वाले हैं । सम्भव है इनमें सुधर्मा के खुद के ही शब्दों का प्रतिबिम्ब हो। यह भी असम्भव नहीं कि इन प्रतिबिम्बरूप शब्दों में से अमुक शब्द भगवान् महावीर के खुद के शब्दों के प्रतिबिम्ब के रूप में हों, अमुक शब्द सुधर्मास्वामी के वचनों के प्रतिबिम्ब के रूप में हों, अमुक शब्द गीतार्थ महापुरुषों के शब्दों की प्रतिध्वनि के रूप में हों। इनमें से कौन से शब्द किस कोटि के हैं, इसका पृथक्करण यहाँ सम्भव नहीं । वर्तमान में हम गुरुनानक, कबीर, नरसिंह मेहता, आनन्दघन, यशोविजय उपाध्याय आदि के जो भजन-स्तवन गाते हैं उनमें मूल को अपेक्षा कुछ-कुछ परिवर्तन दिखाई देता है। इसी प्रकार का थोड़ा-बहुत परिवर्तन आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में प्रतीत होता है। यही बात सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के विषय में भी कही जा सकती है। शेष अंगों के विषय में ऐसा नहीं कह सकते। ये गीतार्थ स्थविरों की रचनाएँ हैं । इनमें महावीर आदि के शब्दों का आधिक्य न होते हुए भी उनके आशय का अनुसरण तो है ही। ब्रह्मचर्य एवं ब्राह्मण :
आचारांग का दूसरा नाम बंभचेर अर्थात् ब्रह्मचर्य है। इस नाम में 'ब्रह्म' और 'चर्य' ये दो शब्द हैं । नियुक्तिकार ने ब्रह्म की व्याख्या करते हुए नामतः ब्रह्म, स्थापनातः ब्रह्म, द्रव्यतः ब्रह्म एवं भावतः ब्रह्म-इस प्रकार ब्रह्म के चार भेद बतलाये हैं । नामतः ब्रह्म अर्थात् जो केवल नाम से ब्रह्म-ब्राह्मण है । स्थापनातः ब्रह्म का अर्थ है चित्रित ब्रह्म अथवा ब्राह्मणों की निशानी रूप यज्ञोपवीतादि युक्त चित्रित आकृति अथवा मिट्टी आदि द्वारा निर्मित वैसा आकार-मूर्ति-प्रतिमा । अथवा जिन मनुष्यों में बाह्य चिह्नों द्वारा ब्रह्मभाव की स्थापना कल्पना की गई हो, जिनमें ब्रह्मपद के अर्थानुसार गुण भले ही न हों वह स्थापनातः ब्रह्म-ब्राह्मण कहलाता है । यहाँ ब्रह्म शब्द का ब्राह्मण अर्थ विवक्षित है । मूलतः तो ब्रह्म शब्द
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