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अंग ग्रन्थों का अंत रंग परिचयः आचारांग
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था व इसके बाद क्या होऊँगा ? इसके विषय में सामान्यतया विचार करने पर प्रतीत होगा कि यह बात साधारण जनता को लक्ष्य करके कही गई है अर्थात् सामान्य लोगों को अपनी आत्मा का एवं उसके भावी का ज्ञान नहीं होता । विशेषरूप से विचार करने पर मालूम होगा कि यह उल्लेख तत्कालीन भगवान् बुद्ध के सत्कार्यवाद के विषय में है । बुद्ध निर्वाण को स्वीकार करते हैं, पुनर्जन्म को भी स्वीकार करते हैं । ऐसी अवस्था में वे आत्मा को न मानते हों ऐसा नहीं हो सकता | उनका आत्मविषयक मत अनात्मवादी चार्वाक जैसा नहीं है । यदि उनका मत वैसा होता तो वे भोगपरायण बनते, न कि त्यागपरायण । वे आत्मा को मानते अवश्य हैं किन्तु भिन्न प्रकार से । वे कहते हैं कि आत्मा के विषय में गमनागमन सम्बन्धी अर्थात् वह कहाँ से आई है, कहाँ जाएगी - इस प्रकार का विचार करने से विचारक के आस्रव कम नहीं होते, उलटे नये आस्रव उत्पन्न होने लगते हैं । अतएव आत्मा के विषय में 'वह कहाँ से आई हैं व कहाँ जाएगी' इस प्रकार का विचार करने की आवश्यकता नहीं है । मज्झिमनिकाय के सव्वासव नामक द्वितीय सुत्त में भगवान् बुद्ध के वचनों का यह आशय स्पष्ट है । आचारांग में भी आगे (तृतीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक में) स्पष्ट बताया गया है कि 'मैं कहां से आया हूँ ? मैं कहां जाऊँगा ?' इत्यादि - विचारधाराओं को तथागत बुद्ध नहीं मानते ।
भगवान् महावीर के आत्मविषयक वचनों को उद्दिष्ट कर चूर्णिकार कहते हैं कि क्रियावादी मतों के एक सौ अस्सी भेद हैं । उनमें से कुछ आत्मा को सर्वव्यापी मानते हैं । कुछ मूर्त्त, कुछ अमूर्त, कुछ कर्त्ता, कुछ अकर्त्ता मानते हैं । कुछ श्यामाक' परिमाण, कुछ तंडुलपरिमाण, कुछ अंगुष्ठपरिमाण मानते हैं । कुछ लोग आत्मा को दीपशिखा के समान क्षणिक मानते हैं । जो अक्रियावादी हैं वे आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानते । जो अज्ञानवादी - अज्ञानी हैं वे इस विषय में कोई विवाद ही नहीं करते । विनयवादी भी अज्ञानवादियों के ही समान हैं । उपनिषदों में आत्मा को श्यामाकपरिमाण, तण्डुलपरिमाण, अंगुष्ठपरिमाण आदि मानने के उल्लेख उपलब्ध हैं ।
प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में 'अणगारा मो त्ति एगे वयमाणा' अर्थात् 'कुछ लोग कहते हैं कि हम अनगार हैं' ऐसा वाक्य आता है । अपने कोअनगार कहने वाले ये लोग पृथ्वी आदि का आलंभन अर्थात् हिंसा करते हुए नहीं हिचकिचाते । ये अनगार कौन हैं ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए चूर्णिकार कहते.
१. अन्न विशेष साँवा.
२. छान्दोग्य – तृतीय अध्याय चौदहवाँ खण्ड; आत्मोपनिषद् - प्रथम कण्डिका नारायणोपनिषद् - श्लो० ७१.
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