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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
१३५ संयोग से उत्पन्न होने वाला बोक्कस, शूद्र व निषादी के संयोग से उत्पन्न होने वाला कुक्कुटक अथवा कुक्कुरक कहलाता है ।
इस प्रकार वर्णों व वर्णान्तरों की उत्पत्ति का स्वरूप बताते हुए चर्णिकार स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं कि 'एवं स्वच्छंदमतिविगप्पितं' अर्थात् वैदिक परम्परा में ब्राह्मण आदि की उत्पत्ति के विषय में जो कुछ कहा गया है वह सब स्वच्छन्दमतियों की कल्पना है । उपर्युक्त वर्ण-वर्णान्तर सम्बन्धी समस्त विवेचन मनुस्मृति ( अ० १०, श्लोक० ४-४५ ) में उपलब्ध है। चूर्णिकार व मनुस्मृतिकार के उल्लेखों में कहीं-कहीं नाम आदि में थोड़ा-थोड़ा अन्तर दृष्टिगोचर होता है । शस्त्रपरिज्ञा :
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन का नाम सत्थपरिन्ना अर्थात् शस्त्रपरिज्ञा है। शस्त्रपरिज्ञा अर्थात् शस्त्रों का ज्ञान । आचारांग श्रमण-ब्राह्मण के आचार से सम्बन्धित ग्रन्थ है। उसमें कहीं भी युद्ध अथवा सेना का वर्णन नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रथम अध्ययन में शस्त्रों के सम्बन्ध में विवेचन कैसे सम्भव हो सकता है ? संसार में लाठी, तलवार, खंजर, बन्दुक आदि की ही शस्त्रों के रूप में प्रसिद्धि है। आज के वैज्ञानिक युग में अणुबम, उद्जनबम आदि भी शस्त्र के रूप में प्रसिद्ध हैं। ऐसे शस्त्र स्पष्ट रूप से हिंसक है, यह सर्वविदित है । आचारांग के कर्ता को दृष्टि से क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, काम, ईर्ष्या मत्सर आदि कषाय भी भयंकर शस्त्र हैं। इतना ही नहीं, इन कषायों द्वारा ही उपयुक्त शस्त्रास्त्र उत्पन्न हुए हैं । इस दृष्टि से कषायजन्य समस्त प्रवृत्तियाँ शस्त्ररूप हैं । कषाय के अभाव में कोई भी प्रवृत्ति शस्त्ररूप नहीं है । यही भगवान् महावीर का दर्शन व चिन्तन है। आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में कषायरूप अथवा कषायजन्य प्रवृत्तिरूप शस्त्रों का ही ज्ञान कराया गया है । इसमें बताया गया है कि जो बाह्य शौच के बहाने पृथ्वी, जल इत्यादि का अमर्यादित विनाश करते हैं वे हिंसा तो करते ही हैं, चोरी भी करते हैं। इसी का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने कहा है कि 'चउसठ्ठीए मट्टियाहि स हाति' अर्थात् वह चौंसठ ( बार ) मिट्टी से स्नान करता है। कुछ वैदिकों की मान्यता है कि भिन्न-भिन्न अंगों पर कुल मिला कर चौंसठ बार मिट्टी लगाने पर ही पवित्र हुआ जा सकता है । मनुस्मृति (अ० ५, श्लो० १३५-१४५ ) में बाह्य शौच अर्थात् शरीर शुद्धि व पात्र आदि की शुद्धि के विषय में विस्तृत विधान है । उसमें विभिन्न क्रियाओं के बाद शुद्धि के लिए किस-किस अंग पर कितनी-कितनी बार मिट्टी व पानी का प्रयोग करना चाहिए, इसका स्पष्ट उल्लेख है । इस विधान में गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वनवासी एवं यति का अलग-अलग विचार किया गया है
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