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अंग ग्रन्थों का बाह्य परिचय
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नंदी आदि में उल्लिखित पदसंख्या और सचेलक परम्परा के आचारांगादि विद्यमान ग्रन्थों की उपलब्ध श्लोकसंख्या के समन्वय का किसी भी टीकाकार ने प्रयत्न नहीं किया है ।
अचेलक परम्परा के राजवातिक, सर्वार्थसिद्धि एवं श्लोकवातिक में एतद्विषयक कोई उल्लेख नहीं है। जयधवला में पद के तीन प्रकार बताये गये हैं : प्रमाणपद, अर्थपद व मध्यमपद । आठ अक्षरों के परिमाण वाला प्रमाणपद है। ऐसे चार प्रमाणपदों का एक श्लोक होता है । जितने अक्षरों द्वारा अर्थ का बोध हो उतने अक्षरों वाला अर्थपद होता है। १६३४८३०७८८८ अक्षरों वाला मध्यमपद कहलाता है। धवला, गोम्मटसार एवं अंगपण्णत्ति में भी यही व्याख्या की गई है। आचारांग आदि में पदों की जो संख्या बताई गई है उनमें प्रत्येक पद में इतने अक्षर समझने चाहिए। इस प्रकार आचारांग के १८००० पदों के अक्षरों की संख्या २९४२६९५४१९८४००० होती है। अंगपण्णत्ति आदि में ऐसी संख्या का उल्लेख किया गया है । साथ ही आचारांग के अठारह हजार पदों के श्लोकों की संख्या ९१९५९२३११८७००० बताई गई है । इसी प्रकार अन्य अंगों के श्लोकों एवं अक्षरों को संख्या भी बताई गई है। वर्तमान में उपलब्ध अंगों से न तो सचेलकसंमत पदसंख्या का और न अचेलकसंमत पदसंख्या का मेल है।
बौद्ध ग्रन्थों में उनके पिटकों के परिमाण के विषय में उल्लेख उपलब्ध है। मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, संयुत्तनिकाय आदि की जो सूत्रसंख्या बताई गई है उसमें भी वर्तमान में उपलब्ध सूत्रों की संख्या से पूरा मेल नहीं है ।
वैदिक परम्परा में 'शतशाखः सहस्रशाखः' इस प्रकार की उक्ति द्वारा वेदों की सैकड़ों-हजारों शाखाएँ मानी जाती हैं। ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों तथा महाभारत के लाखों श्लोक होने की मान्यता प्रचलित है। पुराणों के भी इतने ही श्लोक होने की कथा प्रचलित है । अंगों का क्रम : ___ग्यारह अंगों के क्रम में सर्वप्रथम आवारांग है। आचारांग को क्रम में सर्वप्रथम स्थान देना सर्वथा उपयुक्त है क्योंकि संघव्यवस्था में सबसे पहले आचार की व्यवस्था अनिवार्य होती है। आचारांग की प्राथमिकता के विषय में दो भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलते हैं ।' कोई कहता है कि पहले पूर्वो की रचना हुई बाद में आचारांग आदि बने। कोई कहता है कि सर्वप्रथम आचारांग बना व बाद में अन्य रचनाएँ हुईं। चूर्णिकारों एवं वृत्तिकारों ने इन दो परस्पर विरोधी उल्लेखों १. आचारांगनियुक्ति, गाथा ८-९; आचारांगवृत्ति, पृ० ५.
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