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अंग ग्रन्थों का बाह्य परिचय
विवागसुय-ग्यारहवें अंग का नाम है विपाकश्रुत, विपाकसूत्र, विवायसुअ, विवागसुय अथवा विवागसुत्त । ये सब नाम एकार्थक एवं समान हैं । विपाक शब्द का प्रयोग पातंजल योगदर्शन एवं चिकित्साशास्त्र में भी हुआ है। चिकित्साशास्त्र का विपाक शब्द खानपान इत्यादि के विपाक का सूचक है। यहाँ विपाक का यह अर्थ न लेते हुए आध्यात्मिक अर्थ लेना चाहिए अर्थात सदसत् प्रवृत्ति द्वारा होने वाले आध्यात्मिक संस्कार के परिणाम का नाम ही विपाक है । पापप्रवृत्ति का परिणाम पापविपाक है एवं पुण्यप्रवृत्ति का परिणाम पुण्यविपाक है। प्रस्तुत अंग का विपाकश्रत नाम सार्थक है क्योंकि इसमें इस प्रकार के विपाक को भोगने वाले लोगों को कथाओं का संग्रह है।
दिदिवाय-बारहवां अंग दृष्टिवाद के नाम से प्रसिद्ध है। यह अभी उपलब्ध नहीं है । अतः इसके विषयों का हमें ठीक-ठीक पता नहीं है । दृष्टि का अर्थ है दर्शन और वाद का अर्थ है चर्चा । इस प्रकार दृष्टिवाद का शब्दार्थ होता है दर्शनों की चर्चा । इस अंग में प्रधानतया दार्शनिक चर्चाएँ रही होंगी, ऐसा ग्रन्थ नाम से प्रतीत होता है। इसके पूर्वगत विभाग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं जिनके नाम पहले गिनाये जा चुके है । इन पूर्वो को लिखने में कितनी स्याही खर्च हुई होगी, इसका अंदाज लगाने के लिए सचेलक परम्परा में एक मजेदार कल्पना की गई है। कल्पसूत्र के अर्वाचीन वृत्तिकार कहते हैं कि प्रथम पूर्व को लिखने के लिए एक हाथी के वजन जितनी स्याही चाहिए द्वितीय पूर्व को लिखने के लिए दो हाथियों के वजन जितनी, तृतीय के लिए चार हाथियों के वजन जितनी, चतुर्थ के लिए आठ हाथियों के वजन जितनी, इस प्रकार उत्तरोत्तर दुगुनी-दुगुनी करते-करते अंतिम पूर्व को लिखने के लिए आठ हजार एक सौ बानबे हाथियों के वजन जितनी स्याही चाहिए ।
कुछ मुनियों ने ग्यारह अंगों तथा चौदह पूर्वो का अध्ययन केवल बारह वर्ष में किया है, ऐसा उल्लेख व्याख्याप्रज्ञप्ति में आता है। इतना विशाल साहित्य इतने अल्प समय में कैसे पढ़ा गया होगा? यह एक विचारणीय प्रश्न है। इसे ध्यान में रखते हुए उपर्युक्त कल्पना को महिमावर्धक व अतिशयोक्तिपूर्ण कहना अनुचित न होगा। इतना अवश्य है कि पूर्वगत साहित्य का परिमाण काफी विशाल रहा है। ___ स्थानांगसूत्र में बारहवें अंग के दस पर्यायवाची नाम बताये हैं : १. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, ३. भूतवाद, ४. तथ्यवाद, ५. सम्यग्वाद, ६. धर्मवाद ७. भाषाविचय अथवा भाषाविजय, ८. पूर्वगत, ९. अनुयोगगत और १०. सर्वजीव
१. स्थानांग, १०.७४२.
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