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जैन साहिय का बृहद् इतिहास
चार वेद, कपिल - दर्शन, महाभारत, रामायण, वैशेषिक-शास्त्र, , बुद्ध वचन, व्याकरण-शास्त्र, नाटक सथा समस्त कलाएँ अर्थात् बहत्तर कलाएँ मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत एवं सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक् श्रुत हैं । अथवा सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति में निमित्तरूप होने के कारण ये सब मिथ्यादृष्टि के लिये भी सम्यक्भुत हैं ।
सूत्रकार के इस कथन में ऐसा कहीं नहीं बताया गया है कि अमुक शास्त्र अपने आप ही सम्यक् हैं अथवा अमुक शास्त्र अपने आप ही मिथ्या हैं । सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से ही शास्त्रों को सम्यक् एवं मिथ्या कहा गया है । आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी प्रकारान्तर से इसी बात का समर्थन किया है ।
आचार्य हरिभद्र के लगभग दो सौ वर्ष बाद होने वाले शीलांकाचार्य ने अपनी आचारांग वृत्ति में जैनाभिमत क्रियाकाण्ड की समभावपूर्वक साधना करने की सूचना देते हुए लिखा है कि चाहे कोई मुनि दो वस्त्रधारी हो, तीन वस्त्रधारी हो, एक वस्त्रधारी हो अथवा एक भी वस्त्र न रखता हो अर्थात् अचेलक हो किन्तु जो एक-दूसरे की अवहेलना नहीं करते वे सब भगवान् की आज्ञा में विचरते हैं । संहनन, धृति आदि कारणों से जो भिन्न-भिन्न कल्पवाले हैं - भिन्न-भिन्न बाह्य आचार वाले हैं किन्तु एक-दूसरे का अपमान नहीं करते, न अपने को हीन ही मानते हैं वे सब आत्मार्थी जिन भगवान् की आज्ञानुसार राग-द्वेषादिक की परिणति का विनाश करने का यथाविधि प्रयत्न कर रहे हैं । इस प्रकार का विचार रखने व इसी प्रकार परस्पर सविनय व्यवहार करने का नाम हो सम्यक्त्व अथवा सम्यक्त्व का अभिज्ञान है । '
१. एतद्विषयक मूलपाठ व वृत्ति इस प्रकार है :
मूलपाठः
"जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मतं ( समत्तं ) एव समभिजाणिज्जा"
- आचारांग, अ० ६, उ०३, सू १८२.
वृत्तिः
" यथा - येन प्रकारेण 'इदम्' इति यदुक्तम्, वक्ष्यमाणं च --- एतद् भगवता वीरवर्धमानस्वामिना प्रकर्षेण आदौ दा वेदितम् - प्रवेदितम् — इति । 'उपकरणलाघवम् आहारलाघवं वा अभिसमेत्य -ज्ञात्वा कथम् ? सर्वतः इति द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः भावतश्च । द्रव्यतः आहार- उपकरणादौ, क्षेत्रतः सर्वत्र ग्रामादी, कालतः अनि रात्रौ वा दुर्भिक्षादी वा सर्वात्मना भावतः कृत्रिमकल्काद्यभावेन । तथा सम्यक्त्वम् --- इति प्रशस्तम् शोभनम् एकम् संगतं वा तत्त्वम्, सम्यक्त्वम्,
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