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यह रचना गणधरों ने अपने मन से नहीं की किन्तु भगवान् महावीर के उपदेश के आधार पर की है, अतएव ये आगम प्रमाण माने जाते हैं।
तीसरी बात जो ध्यान देने की है वह यह कि इन द्वादश ग्रन्थों को 'अंग' कहा गया है। इन्हीं द्वादश अंगों का एक वर्ग है जिनका गणिपिटक के नाम से परिचय दिया गया है। गणिपिटक में इन बारह के अलावा अन्य आगम ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है। इससे यह भी सूचित होता है कि मूलरूप से आगम ये ही थे और इन्हीं की रचना गणधरों ने की थी।
'गणिपिटक' शब्द द्वादश अंगों के समुच्चय के लिए तो प्रयुक्त हुआ ही है किन्तु वह प्रत्येक के लिए भो प्रयुक्त होता होगा ऐसा समवायांग के एक उल्लेख से प्रतीत होता है - "तिण्हं गणिपिडगाणं आयारचूलिया वज्जाणं सत्तावन्नं अज्झयणा पन्नता तं जहा-आयारे सूयगडे ठाणे।" (समवाय ५७ वाँ)। अर्थात् आचार आदि प्रत्येक की जैसे अंग संज्ञा है वैसे ही प्रत्येक की 'गणिपिटक' ऐसी भी संज्ञा थी ऐसा अनुमान किया जा सकता है ।
वैदिक साहित्य में 'अंग' (वेदांग) संज्ञा संहिताएँ, जो प्रधान वेद थे, उनसे भिन्न कुछ ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त है । और वहाँ 'अंग' का तात्पर्य है-वेदों के अध्ययन में सहायभत विविध विद्याओं के ग्रन्थ । अर्थात् वैदिक वाङ्मय में 'अंग' का तात्पर्यार्थ मौलिक नहीं किन्तु गौण ग्रन्यों से है। जैनों में 'अंग' शब्द का यह तात्पर्य नहीं है । आचार आदि अंग ग्रन्थ किसी के सहायक या गौण ग्रन्थ नहीं हैं किन्तु इन्हों बारह ग्रन्थों से बननेवाले एक वर्ग की इकाई होने से 'अंग' कहे गये हैं। इसमें सन्देह नहीं। इसीसे आगे चलकर श्रुतपुरुष की कल्पना की गई और इन द्वादश अंगों को उस श्रुतपुरुष के अंगरूप से माना गया ।
अधिकांश जैन तीर्थंकरों की परम्परा पौराणिक होने पर भी उपलब्ध समग्र जैन साहित्य का जो आदिस्रोत समझा जाता है वह जैनागमरूप अंग साहित्य वेद जितना पुराना नहीं है, यह मानी हुई बात है। फिर भी उसे बौद्धपिटक का समकालीन तो माना जा सकता है ।
डा० जेकोबी आदि का तो कहना है कि समय की दृष्टि से जैनागम का रचनासमय जो भी माना जाय किन्तु उसमें जिन तथ्यों का संग्रह है वे तथ्य ऐसे
१. Doctrine of the Jainas, P. 73. २. नन्दीचूर्णि, पृ० ४७, कापडिया-केनोनिकल लिटरेचर, पृ० २१.
३. "बौद्धसाहित्य जैनसाहित्य का समकालीन ही है"-ऐसा पं० कैलाशचन्द्र जब लिखते हैं तब इसका अर्थ यही हो सकता है। देखिये-जैन. सा. इ. पूर्वपीठिका, पृ० १७४.
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