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ही यह सुझ हो, जब उन्होंने विधिमार्गप्रपा लिखी । जिनप्रभ का लेखनकाल सुदीर्घ था यह उनके विविधतीर्थकल्प की रचना से पता लगता है । इसकी रचना उन्होंने ई० १२७० में शुरू की और ई० १३३२ में इसे पूर्ण किया' इसी बीच उन्होंने १३०६ ई० में विधिमार्गप्रपा लिखी है । स्तवन सम्भवतः इससे प्राचीन होगा | उपलब्ध आगमों और उनको टीकाओं का परिमाण :
समवाय और नन्दीसूत्र में अंगों की जो पदसंख्या दी है उसमें पद से क्या अभिप्रेत है यह ठीक रूप से ज्ञात नहीं होता । और उपलब्ध आगमों से पदसंख्या का मेल भी नहीं है । दिगम्बर षट्खण्डागम में गणित के आधार पर स्पष्टीकरण करने का जो प्रयत्न है वह भी काल्पनिक ही है, तथ्य के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं दीखता ।
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अतएव अब उपलब्ध आगमों का क्या परिमाण है इसकी चर्चा की जाती ये संख्याएँ हस्वप्रतियों में ग्रन्थाग्ररूप से निर्दिष्ट हुई हैं । उसका तात्पर्य होता है - ३२ अक्षरों के श्लोकों से । लिपिकार अपना लेखन पारिश्रमिक लेने के लिए गिनकर प्रायः अन्त में यह संख्या देते हैं । कभी स्वयं ग्रन्थकार भी इस संख्या का निर्देश करते हैं यहाँ दी जानेवाली संख्याएँ, भांडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट के वोल्युम १७ के १-३ भागों में आगमों और उनकी टीकाओं की हस्त प्रतियों की जो सूची छपी है उसके आधार से हैं—इससे दो कार्य सिद्ध होंगे - श्लोकसंख्या के बोध के अलावा किस आगम की कितनी टीकाएँ लिखी गईं इसका भी पता लगेगा ।
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१. अंग ( १ ) आचारांग
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13
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२६४४, २६५४
नियुक्ति ४५०
चू
८७५०
वृत्ति
१२३००
दीपिका ( १ ) ९०००, १००००, १५०००
(२) ९०००
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अवचूरि
पर्याय
१. जै० सा० सं० इ०, पृ० ४१६.
२. जै० सा० इ० पूर्वपीठिका, पृ० ६२१; षट्खंडागम, पु० १३, पृ०
२४७-२५४.
३. कभी-कभी धूर्त लिपिकार संख्या गलत भी लिख देते हैं ।
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