________________
( ३९ )
कुछ जैन आचार्य भी मानते हैं, वे उनके कर्ता नहीं है। आगम तो प्राचीन ही हैं। उन्होंने उन्हें यत्र-तत्र व्यवस्थित किया ।' आगमों में कुछ अंश प्रक्षिप्त हो सकता है किन्तु उस प्रक्षेप के कारण समग्र आगम साहित्य का काल देवधि का काल नहीं हो जाता । उसमें कई अंश ऐसे हैं जो मौलिक हैं । अतएव पूरे आगम साहित्य का एक काल नहीं है। तत्तत् आगम का परीक्षण करके कालनिर्णय करना जरूरी है। सामान्य तौर पर विद्वानों ने अंग-आगमों का काल, प्रक्षेपों को छोड़कर, पाटलिपुत्र की वाचना के काल को माना है । पाटलिपुत्र की वाचना भगवान् महावीर के बाद छठे आचार्य के काल में भद्रबाहु के समय में हुई और उसका काल है ई. पू. ४थी शताब्दी का दूसरा दशक । डा. जेकोबी ने छन्द आदि की दृष्टि से अध्ययन करके यह निश्चय किया था कि किसी भी हालत में आगम के प्राचीन अंश ई० पू० चौथी के अन्त से लेकर ई० पू० तीसरी के प्रारम्भ से प्राचीन नहीं ठहरते । हर हालत में हम इतना तो मान ही सकते हैं कि आगमों का प्राचीन अंश ई० पूर्व का है । उन्हें देवधि के काल तक नहीं लाया जा सकता।
आगमों का लेखनकाल ई० ४५३ (मतान्तर से ई० ४६६) माना जाता है। वलभी में उस समय कितने आगम लेखबद्ध किये गये इसको कोई सूचना नहीं मिलती। किन्तु इतनी तो कल्पना की जा सकती है कि अंग-आगमों का प्रक्षेपों के साथ यह अन्तिम स्वरूप था। अतएव अंगों के प्रक्षेपों को यही अन्तिम मर्यादा हो सकती है। प्रश्नव्याकरण जैसे सर्वथा नूतन अंग की वलभी-लेखन के समय क्या , स्थिति थी यह एक समस्या बनी ही रहेगी। इसका हल अभी तो कोई दीखता नहीं है ।
कई विद्वान् इस लेखन के काल का और अंग-आगमों के रचनाकाल का सम्मिश्रण कर देते हैं और इसो लेखन-समय को रचना काल भी मान लेते हैं। यह तो ऐसी ही बात होगी जैसे कोई किसी हस्तप्रति के लेखनकाल को देख कर उसे ही रचनाकाल भी मान ले । ऐसा मानने पर तो समग्र वैदिक साहित्य के काल का निर्णय जिन नियमों के आधार पर किया जाता है वह नहीं होगा और हस्तप्रतियों के आधार पर ही करना होगा। सच बात तो यह है कि जैसे वैदिक वाङ्मय श्रुत है वैसे ही जैन आगमों का अंग विभाग भी श्रुत है । अतएव उसके
१. देखें-सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, भाग २२ की प्रस्तावना, पृ० ३९ .
में जेकोबी का कथन । २. Doctrine of the Jainas, P. 73. ३. सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट, २२, प्रस्तावना पृ० ३१ से; डोक्ट्रिन ऑफ
दी जैन्स, पृ० ७३, ८१.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org