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जैन श्रुत सोरठ ( सौराष्ट्र ] प्रदेश में स्थित गिरनार की चन्द्रगुफा में रहते थे। वे अष्टांगमहानिमित्त शास्त्र में पारंगत थे। उन्हें ऐसा मालूम हो गया कि अब श्रुतसाहित्य का विच्छेद हो जाएगा ऐसा भयंकर समय आ गया है। यह जानकर भयभीत हुए प्रवचनप्रेमी घरसेन ने दक्षिण प्रदेश में विचरने वाले महिमा नगरी में एकत्रित आचार्यों को एक पत्र लिख भेजा । पत्र पढ़कर आचार्यों ने आंध्र प्रदेश के बेन्नातट नगर के विशेष बुद्धिसम्पन्न दो शिष्यों को आचार्य धरसेन के पास भेज दिया। आये हुए शिष्यों की परीक्षा करने के बाद उन्हें धरसेन ने अपनी विद्या अर्थात् श्रुतसाहित्य पढ़ाना प्रारम्भ किया। पढ़ते-पढ़ते आषाढ़ शुक्ला एकादशी का दिवस आ पहुँचा। इस दिन ठीक दोपहर में उनका अध्ययन पूर्ण हुआ। आचार्य दोनों शिष्यों पर बहुत प्रसन्न हुए एवं उनमें से एक का नाम भूतबली व दूसरे का नाम पुष्पदन्त रखा। इसके बाद दोनों शिष्यों को वापस भेजा। उन्होंने सोरठ से वापस जाते हुए ( अंकुलेश्वर या अंकलेश्वर ) नामक ग्राम में चातुर्मास किया । तदनन्तर आचार्य पुष्पदन्त वनवास के लिए गये एवं आचार्य भूतबली द्रमिल ( द्रविड़ ) में गये । आचार्य पुष्पदन्त ने जिनपालित नामक शिष्य को दीक्षा दी। फिर बीस सूत्रों की रचना की एवं जिनपालित को पढ़ाकर उसे द्रविड़ देश में आचार्य भूतबली के पास भेजा। भूतबली ने यह जानकर कि आचार्य पुष्पदन्त अल्प आयु वाले हैं तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत सम्बन्धी जो कुछ श्रुतसाहित्य है वह उनकी मृत्यु के बाद नहीं रह सकेगा, द्रव्यप्रमाणानुयोग को प्रारम्भ में रखकर षट्खण्डागम की रचना की। इस खंडसिद्धान्तश्रुत के कर्ता के रूप में आचार्य भूतबली तथा पुष्पदन्त दोनों माने जाते हैं । इस कथानक में सोरठ प्रदेश का उल्लेख आता है। श्री देवर्धिगणि की ग्रंथलेखन-प्रवृत्ति का सम्बन्ध भी सोरठ प्रदेश की ही वलभी नगरी के साथ है । . जब विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में आचार्य अभयदेव ने अंगग्रन्थों पर वृत्तियाँ लिखी तब कुछ श्रमण उनके इस कार्य से असहमत थे, यह अभयदेव के प्रबन्ध में स्पष्टतया उल्लिखित है।
इसे देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि जब ग्रन्थलेखन की प्रवृत्ति प्रारम्भ हुई होगी तब तत्कालीन समस्त जैन परम्परा की इस कार्य में सहमति रही होगी। फिर भी जिन्होंने अपवाद-मार्ग का अवलम्बन लेकर भी ग्रन्थलेखन द्वारा धर्मवचनों को सुरक्षित रखने का पवित्रतम कार्य किया है उनका हमपर-विशेषकर संशोधकों पर महान् उपकार है । श्रुतज्ञान : .. जैन परम्परा में प्रचलित 'श्रुत' शब्द केवल जैन शास्त्रों के लिए ही रूढ़ नहीं १. षट्खण्डागम, प्रथम भाग, पृ० ६७-७१.
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