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जैन श्रुत
सकते हैं । जो जैन सम्प्रदाय के वेष में न हों अर्थात् जिनका बाह्य क्रियाकाण्ड जैन सम्प्रदाय का न हो फिर भी जो आन्तरिक शुद्धि के प्रभाव से सिद्धि - मुक्ति को प्राप्त हुए हों वे अन्यलिंगसिद्ध कहलाते हैं । उपर्युक्त गाथाओं में अन्यलिंग से सिद्धि प्राप्त करने वालों के जो नाम बताये हैं वे ये हैं : असित, देवल, द्वैपायन, पाराशर, नमीविदेही, रामपुत्त, बाहुक तथा नारायण । ये सब महापुरुष वैदिक परम्परा के महाभारत आदि ग्रन्थों में सुप्रसिद्ध हैं । इन गाथाओं में 'एते पुव्वि महापुरिसा आहिता इह संमता' इस प्रकार के निर्देश द्वारा मूलसूत्रकार ने यह बताया है कि ये सब प्राचीन समय के प्रसिद्ध महापुरुष हैं तथा इन्हें 'इह' अर्थात् आर्हत प्रवचन में सिद्धरूप से स्वीकार किया गया है । यहाँ 'इह' का सामान्य अर्थ आर्हत प्रवचन तो है ही किन्तु वृत्तिकार ने 'ऋषिभाषितादी' अर्थात् 'ऋषिभाषित आदि ग्रन्थों में इस प्रकार का विशेष अर्थ भी बताया है । इससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ऋषिभाषित ग्रन्थ इतना अधिक प्रमाणप्रतिष्ठित है कि इसका निर्देश वृत्तिकार के कथनानुसार स्वयं मूलसूत्रकार ने भी किया है ।
नाम बताते हुए
।' 'ऋषिभाषित के चौवालीस
सूत्रकृतांग में 'ऋषिभाषित' नाम का परोक्ष रूप से उल्लेख है किन्तु स्थानांग व समवायांग में तो इसका स्पष्ट निर्देश है । इनमें उसकी अध्ययन - संख्या भी बताई गई है । स्थानांग में प्रश्नव्याकरण के दस अध्ययनों के 'ऋषिभाषित' नाम का स्पष्ट उल्लेख किया गया है अध्ययन देवलोक में से मनुष्यलोक में आये हुए जीवों द्वारा कहे गये हैं' इस प्रकार 'ऋषिभाषित' नाम का तथा उसके चौवालीस अध्ययनों का निर्देश समवायांग के चौवालीसवें समवाय में है । इससे मालूम होता है कि यह ग्रन्थ प्रामाण्य की दृष्टि से विशेष प्रतिष्ठित होने के साथ ही विशेष प्राचीन भी है । इस ग्रन्थ पर आचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी जिससे इसकी प्रतिष्ठा व प्रामाणिकता में विशेष वृद्धि होती है ।
सद्भाग्य से ऋषिभाषित ग्रन्थ इस समय उपलब्ध है । यह आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित किया गया है । इसमें जैन सम्प्रदाय के न होने पर भी जैन परम्परा द्वारा मान्य अनेक महापुरुषों के नामों का उनके वचनों के साथ निर्देश किया गया है । जिस प्रकार इस ग्रन्थ में भगवान् वर्धमान महावीर एवं भगवान् पार्श्व के नाम का उल्लेख 'अर्हत् ऋषि' विशेषण के साथ किया गया है उसी प्रकार इसमें याज्ञवल्क्य, बुद्ध, मंखलिपुत्त आदि के नामों के साथ भी 'अर्हत् ऋषि' विशेषण
१. स्थान. १०, सूत्र ७५५.
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