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( ४१ ) भारतीय प्राचीन वेदांग के समान है। बाद का जो ज्योतिष का विकास है वह उसमें नहीं। ऐसी परिस्थिति में इनका समय विक्रम पूर्व ही हो सकता है; बाद में नहीं।
छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की रचना भद्रबाहु ने की थी। इनके ऊपर प्राचीन नियुक्ति-भाष्य आदि प्राकृत टीकाएँ भी लिखी गई हैं। अतएव इनके विच्छेद की कोई कल्पना करना उचित नहीं है। धवला में कल्पव्यवहार को अंगबाह्य गिना गया है और उसके विच्छेद की वहाँ कोई चर्चा नहीं है । भद्रबाहु का समय ई० पू० ३५७ के आसपास निश्चित है । अतः उनके द्वारा रचित दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार का समय भी वही होना चाहिए । निशीथ आचारांग की चूला है और किसी काल में उसे आचारांग से पृथक् किया गया है । उस पर भी नियुक्ति, भाष्य, चूणि आदि टीकाएँ हैं। धवला (पृ०९६) में अंगबाह्य रूप से इसका उल्लेख है और उसके विच्छेद की कोई चर्चा उसमें नहीं है । अतएव उसके विच्छेद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। डा० जेकोबी और शुबिंग के अनुसार प्राचीन छेदसूत्रों का समय ई० पू० चौथी का अन्त और तीसरी का प्रारम्भ माना गया है वह उचित हो है ।' जीतकल्प आचार्य जिनभद्र की कृति होने से उसका भी समय निश्चित ही है । यह स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं किन्तु पूर्वोक्त छेद ग्रन्थों का साररूप है। आचार्य जिनभद्र के समय के निर्धारण के लिए विशेषावश्यक की जैसलमेर को एक प्रति के अन्त में जो गाथा दी गई है वह उपयुक्त साधन है । उसमें शक संवत् ५३१ का उल्लेख है । तदनुसार ई० ६०९ बनता है । उससे इतना सिद्ध होता है कि जिनभद्र का काल इससे बाद तो किसी भी हालत में नहीं ठहरता। गाथा में जो शक संवत् का उल्लेख है वह सम्भवतः उस प्रति के किसी स्थान पर रखे जाने का है। इससे स्पष्ट है कि वह उससे पहले रचा गया था । अतएव इसी के आस-पास का काल जीतकल्प की रचना के लिए भी लिया जा सकता है।
___ महानिशीथ का जो संस्करण उपलब्ध है वह आचार्य हरिभद्र के द्वारा उद्धार किया हुआ है । अतएव उसका भी वही समय होगा जो आचार्य हरिभद्र का है । आचार्य हरिभद्र का समयनिर्धारण अनेक प्रमाणों से आचार्य जिनविजयजी ने किया है और वह है ई० ७०० से ८०० के बीच का।
मूलसूत्रों में दशवकालिक की रचना आचार्य शय्यम्भव ने की है और यह चूंकि साधुओं के नित्य स्वाध्याय के काम में आता है अतएव उसका विच्छेद होना
१. डॉक्ट्रिन ऑफ दी जैन्स, पृ० ८१.
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