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( २३ )
अण्णाइ य गणहरभासियाई सामण्णकेवलिकयाइं । पच्चेयसयंबुद्धेहिं विरइयाई गुर्णेति महरिसिणो ॥ कत्थइ पंचावयवं दसह च्चिय साहणं परूवेंति । पच्चक्खमणुमाणपमाणच उक्कयं च अण्णे वियारेति ॥ भवजलहिजाणवत्तं पेम्ममहारायणियलणिद्दलणं । कम्मट्ठगंठिवज्जं अण्णे धम्मं परिकहेंति || मोहंधयाररविणो परवायकु रंगदरिय केसरिणो । णयसयखरणहरिल्ले अण्णे अह वाइणो तत्थ ॥ लोयालोयपयासं दूरंतर सहवत्थुपज्जोयं । केवलसुतणिबद्धं निमित्तमण्णे वियारंति ॥ णाणाजीवपत्ती सुवण्णमणिरयणधा उसंजोयं ॥ जाणंति जणियजोणी जोणीणं पाहुडं अण्णे ॥ ललियवयणत्थसारं सव्वालंकारणिव्वडियसोहं । अमयप्पवाहमहुरं अणे कव्वं विइंतंति ॥ बहुतं तमंत विज्जावियाणया सिद्धजोयजोइसिया । अच्छंति अणुगुता अवरे सिद्धंतसाराई ||
कुवलयमालागत इस विवरण में एक तो यह बात ध्यान देने योग्य है कि अंग के बाद अंगबाह्यों का उल्लेख है । उनमें अंगों के अलावा जिन आगमों के नाम हैं वे मात्र प्रज्ञापना, चन्द्रप्रज्ञाप्ति और सूर्यप्रज्ञाप्ति के हैं । इसके बाद गणधर, सामान्यकेवली, प्रत्येकबुद्ध और स्वयंसम्बुद्ध के द्वारा भाषित या विरचित ग्रन्थों का सामान्य तौर पर उल्लेख है । वे कौन थे इसका नामपूर्वक उल्लेख नहीं है । दूसरी बात यह ध्यान देने की है कि इसमें दशपूर्वीकृत ग्रंथों का उल्लेख नहीं है । गणधर का उल्लेख होने से श्रुतकेवली का उल्लेख सूचित होता है । दूसरी ओर कर्म, मन्त्र, तन्त्र, निमित्त आदि विद्याओं के विषय में उल्लेख है और योनिपाहुड का नामपूर्वक उल्लेख है । काव्यों का चिन्तन भी मुनि करते थे यह भी बताया है । निमित्त को केवलीसूत्रनिबद्ध कहा गया है । कुवलयमाला के दूसरे उल्लेख से यह फलित होता है कि लेखक के मन में केवल आगम ग्रन्थों का ही उल्लेख करना अभीष्ट नहीं है । प्रज्ञापना आदि तीन अंगबाह्य ग्रन्थों का जो नामोल्लेख है यह अंगबाह्यों में उनकी विशेष प्रतिष्ठा का द्योतक है। धवला " जो ८. १०. ८१६ ई० को समाप्त हुई, उससे भी यही सिद्ध होता है कि उस काल तक आगम के अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट ऐसे दो विभाग थे ।
१. धवला, पुस्तक १. पृ० ९६.
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