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आचार्य उमास्वाति भाष्य में अंग के साथ उपांग' शब्द का निर्देश करते हैं और अंगबाह्य ग्रंथ उपांगशब्द से उन्हें अभिप्रेत है। आचार्य उमास्वाति ने अंगबाह्य की जो सूची दी है वह भी जिनप्रभ की सूची का पूर्वरूप है। उसमें प्रथम सामायिकादि छः आवश्यकों का उल्लेख है, तदनंतर "दशवैकालिकं, उत्तराध्यायाः, दशाः, कल्पव्यवहारो, निशीथं, ऋषिभाषितान्येवमादि"-इस प्रकार उल्लेख है। इसमें जो आवश्यकादि मूलसूत्रों का तथा दशा आदि छेदग्रन्थों का एक साथ निर्देश है, वह उनके वर्गीकरण की पूर्वसूचना देता ही है। धवला में १४ अंगबाह्यों की जो गणना की गई है उनमें भी प्रथम छ: आवश्यकों का निर्देश है, तदनन्तर दशवैकालिक और उत्तराध्ययन का और तदनन्तर कप्पववहार, कप्पाकप्पिय, महाकप्पिय, पुंडरीय, महापुंडरीय और निसीह का निर्देश है। इसमें केवल पुंडरीय, महापुंडरीय का उल्लेख ऐसा है जो निसीह को अन्य छेद से पृथक् कर रहा है। अन्यथा यह भी मूल और छेद के वर्गीकरण की सूचना दे ही रहा है।
__ आचार्य जिनप्रभ ने ई. १३०६ में विधिमार्गप्रपा ग्रन्थ की समाप्ति की है। उसमें भी (पृ. ४८ से ) उन्होंने आगमों के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन किया है । क्रम से निम्न ५१ ग्रन्थों का उसमें उल्लेख है-१ आवश्यक, २ दशवकालिक, ३ उत्तराध्ययन, ४ आचारांग, ५ सूयगडांग, ६ ठाणांग, ७ समवायांग, ८ निसीह, ९-११ दसा-कप्प-ववहार, १२ पंचकप्प, १३ जीयकप्प, १४ विवाहपन्नत्ति, ५५ नायाधम्मकहा, १६ उवासगदसा, १७ अंतगडदसा, १८ अनुत्तरोववाइयदसा, १९ पण्हावागरण, २० विवागसुय (दिट्ठिवाओ दुवालसमंगं तं वोच्छिन्नं ) ( पु० ५६ ) इसके बाद यह पाठ प्रासंगिक है-"इत्थ य दिक्खापरियाएण तिवासो आयारपकप्पं वहिज्जा वाइज्जा य । एवं चउवासो सूयगडं । पंचवासो दसा-कप्प-ववहारे । अट्टवासो ठाण-समवाए । दसवासो भगवई। इक्कारसवासो खुड्डियाविमाणाइपंचज्झयणे । बारसवासो अरुणोववायाइपंचज्झयणे । तेरसवासो उठाणसूयाइचउरज्झयणे । चउदसाइअट्ठारसंतवासो कमेण कमेण आसीविसभावणा-दिट्ठिविसभावणा-चारणभावणामहासुमिणभावणा-तेयनिसग्गे। एगूणवीसवासो दिट्ठीवायं संपुन्नवीसवासो सव्वसुत्तजोगो त्ति' ।। (पृ० ५६) ।
१. “अन्यथा हि अनिबद्धमङ्गोपाङ्गशः समुद्रप्रतरणवद् दुरध्यवसेयं स्यात्-" तत्त्वार्थभाष्य, १. २०.
२. “ओहनिज्जुत्ती आवस्सयं चेव अणुपविट्ठा"-विधिमार्गप्रपा, पृ० ४९.
३. दसा-कप्प-ववहार का एक श्रुतस्कन्ध है यह सामान्य मान्यता है। किन्तु किसी के मत से कप्प-ववहार का एक स्कन्ध है-वही पृ० ५२.
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