________________
( २२ )
होता है और उससे यह भी प्रतीत होता है कि कोई एक समय ऐसा था जब ये निरयावलयादि पाँच ही उपांग माने जाते होंगे ।
समवायांग, नन्दी, अनुयोग तथा पाक्षिकसूत्र के समय तक समग्र आगम के मुख्य विभाग दो ही थे— अंग और अंगबाह्य | आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्रभाष्य' से भी यही फलित होता है कि उनके समय तक भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ऐसे ही विभाग प्रचलित थे ।
स्थानांग सूत्र (२७७) में जिन चार प्रज्ञप्तियों को अंगबाह्य कहा गया है वे हैंचन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति । इनमें से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को छोड़ कर शेष तीन कालिक हैं- ऐसा भी उल्लेख स्थानांग ( १५२ ) में है ।
अंग के अतिरिक्त आचार प्रकल्प ( निशीथ ) ( स्थानांग, ४३३; समवायांग, २८ ), आचारदशा ( दशाश्रुतस्कन्ध ), बन्धदशा, द्विगृद्धिदशा, दीर्घदशा और संक्षेपितदशा का भी स्थानांग ( ७५५ ) में उल्लेख है । किन्तु बन्धदशादि शास्त्र अनुपलब्ध हैं । टीकाकार के समय में भी यही स्थिति थी, जिससे उनको कहना पड़ा कि ये कौन ग्रन्थ हैं, हम नहीं जानते । समवायांग में उत्तराध्ययन के ३६ अध्ययनों के नाम दिये हैं ( सम. ३६ ) तथा दशा - कल्पव्यवहार इन तीन के उद्देशनकाल की चर्चा है । किन्तु उनकी छेदसंज्ञा नहीं दी गई है ।
प्रज्ञप्ति का एक वर्ग अलग होगा, ऐसा स्थानांग से पता चलता है । कुवलयमाला ( पृ० ३४ ) में अंगबाह्य में प्रज्ञापना के अतिरिक्त दो प्रज्ञप्तियों का उल्लेख है ।
'छेद' संज्ञा कब से प्रचलित हुई और छेद में प्रारम्भ में कौन से शास्त्र सम्मि लित थे - यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । किन्तु आवश्यक निर्युक्ति में सर्वप्रथम 'छेदसुत्त' का उल्लेख मिलता है । उससे प्राचीन उल्लेख अभी तक मिला नहीं है । इससे अभी इतना तो कहा ही जा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति के समय में छेदसुत्त का वर्ग पृथक हो गया था । कुवलयमाला जो ७-३-७७९ ई० में और विषयों का श्रमण चिन्तन करते थे सर्वप्रथम आचार से लेकर दृष्टिवादपर्यन्त सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति का उल्लेख है । तदनन्तर ये गाथाएँ हैं
समाप्त हुई, उसमें जिन नाना ग्रन्थों उनके कुछ नाम गिनाये हैं । उसमें अंगों के नाम हैं । तदनन्तर प्रज्ञापना,
१. तत्त्वार्थसूत्रभाष्य, १. २०.
२. आव० नि० ७७७; केनोनिकल लिटरेचर, पृ० ३६ में उद्धृत ।
३. कुवलयमाला, पृ० ३४ ।
४. विपाक का नाम इनमें नहीं आता, यह स्वयं लेखक की या लिपिकार की असावधानी के कारण है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org