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नहीं हैं जो उसी संग्रह काल के हों। ऐसे कई तथ्य उसमें संगृहीत हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन पूर्व परम्परा से है ।' अतएव जैनागमों के समय का विचार करना हो तब विद्वानों की यह मान्यता ध्यान में अवश्य रखनी होगी।
जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर भले ही अनेक हों किन्तु उनके उपदेश में साम्य होता है और तत्तत्काल में जो भी अन्तिम तीर्थंकर हों उन्हीं का उपदेश और शासन विचार और आचार के लिए प्रजा में मान्य होता है । इस दृष्टि से भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थकर होने से उन्हीं का उपदेश अन्तिम उपदेश है और वही प्रमाणभूत है। शेष तीर्थकरों का उपदेश उपलब्ध भी नहीं और यदि हो तब भी वह भगवान् महावीर के उपदेश के अन्तर्गत हो गया है-ऐसा मानना चाहिए।
प्रस्तुत में यह स्पष्ट करना जरूरी है कि भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया उसे सूत्रबद्ध किया है गणधरों ने । इसीलिए अर्थोपदेशक या अर्थरूप शास्त्र के कर्ता भगवान् महावीर माने जाते हैं और शब्दरूप शास्त्र के कर्ता गणधर हैं। 3 अनुयोगद्वारगत ( सू ० १४४, पृ० २१९ ) सुत्तागम, अत्थागम, अंतागम, अणंतरागम आदि जो लोकोत्तर आगम के भेद हैं उनसे भी इसी का समर्थन होता है। भगवान् महावीर ने यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि उनके उपदेश का सम्वाद भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश से है तथा यह भी शास्त्रों में कहा गया है कि पार्श्व
और महावीर के आध्यात्मिक सन्देश में मूलतः कोई भेद नहीं है । कुछ बाह्याचार में भले ही भेद दिखता हो।
जैन परम्परा में आज शास्र के लिए ‘आगम' शब्द व्यापक हो गया है किन्तु प्राचीन काल में वह 'श्रुत' या 'सम्यक् श्रुत' के नाम से प्रसिद्ध था।" इसी से 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हुआ न कि आगमकेवली या सूत्रकेवली । और
१. Doctrine of the Jainas, P. 15.
२. इसी दृष्टि से जैनागमों को अनादि-अनन्त कहा गया है-'इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवइ च. भविस्सइ य, धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अवट्टिए निच्चे"नन्दी, सू० ५८, समवायांग, सू० १४८. ___३. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
सासणस्स हियट्टाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥
-आवश्यकनियुक्ति, गा० १९२; धवला भा० १, पृ० ६४ तथा ७२. ४. Doctrine of the Jainas, P. 29. ५. नन्दी, सू० ४१.
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