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प्रस्तावना ]
इस क्षेत्र में श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परा के ग्रन्थ एवं महत्वपूर्ण कला केन्द्र हैं। इस प्रकार इस क्षेत्र की सामग्री के अध्ययन से श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों के ही प्रतिमाविज्ञान के तुलनात्मक एवं क्रमिक विकास का निरूपण सम्भव है । इससे उनके आपसी सम्बन्धों पर भी प्रकाश पड़ सकता है। इस क्षेत्र में एक ओर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं बंगाल में दिगम्बर सम्प्रदाय के कलावशेष और दूसरी ओर गुजरात एवं राजस्थान में श्वेताम्बर कलाकेन्द्र स्वतन्त्र रूप से पल्लवित और पुष्पित हुए। गुजरात और राजस्थान में दिगम्बर सम्प्रदाय की भी कलाकृतियाँ मिली हैं, जो दोनों सम्प्रदायों के सहअस्तित्व की सूचक हैं। गुजरात और राजस्थान में हरिवंशपुराण, प्रतिष्ठासारसंग्रह, प्रतिष्ठासारोद्धार आदि कई महत्वपूर्ण दिगम्बर जैन ग्रन्थों की भी रचना हुई। इस क्षेत्र में ऐसे अनेक समृद्ध जन कला केन्द्र भी स्थित हैं, जहाँ कई शताब्दियों की मूर्ति सम्पदा सुरक्षित है । इनमें मथुरा, चौसा, देवगढ़, राजगिर, अकोटा, कुम्भारिया, तारंगा, ओसिया, विमलवसही, लूणवसही, जालोर, खजुराहो एवं उदयगिरि-खण्डगिरि उल्लेखनीय हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ की समय-सीमा प्रारम्भिक काल से बारहवीं शती ई० तक है। पूर्वगामी शोधकार्य
सर्वप्रथम कनिंघम की रिपोर्ट स में उत्तर भारत के कई स्थलों की जैन मूर्तियों के उल्लेख मिलते हैं। इन रिपोर्ट स में ग्वालियर, बूढ़ी चांदेरी, खजुराहो एवं मथुरा आदि की जैन मूर्तियों के उल्लेख हैं । खजुराहो के पार्श्वनाथ मन्दिर के वि० सं० १०११ ( =९५४ ई० ) और शान्तिनाथ मन्दिर की विशाल शान्ति प्रतिमा के वि० सं० १०८५ ( =१०२८ ई० ) के लेखों का उल्लेख सर्वप्रथम कनिंघम की रिपोर्ट स में हुआ है। कनिंघम ने ऋषभ, शान्ति, पार्श्व एवं महावीर की कुछ मूर्तियों की पहचान भी की है।
प्रारम्भिक विद्वानों के कार्य मुख्यतः जैन प्रतिमाविज्ञान के सर्वाधिक महत्वपूर्ण और प्रारम्भिक स्थल कंकाली टीला (मथुरा) की शिल्प सामग्री पर हैं । यहाँ से ल० १५० ई० पू० से १०२३ ई० के मध्य की सामग्री मिली है। कंकाली टीले की जैन मूर्तियों को प्रकाश में लाने और राज्य संग्रहालय, लखनऊ में सुरक्षित कराने का श्रेय फ्यूरर को है। फ्यूरर ने प्राविन्शियल म्यूजियम, लखनऊ के १८८९ एवं १८९०-९१ की वार्षिक रिपोर्ट स में कंकाली टीला की जैन मूर्तियों का उल्लेख किया है । फ्यूरर ने ही सर्वप्रथम मूर्ति लेखों के आधार पर मथुरा की जैन शिल्प सामग्री की समय-सीमा १५० ई० पू० से १०२३ ई. बतायी और १५० ई० पू० से भी पहले मथुरा में एक जैन मन्दिर की विद्यमानता का उल्लेख किया। ब्यूहलर ने मथुरा की कुछ विशिष्ट जैन मूर्तियों के अभिप्रायों की विद्वत्तापूर्ण विवेचना की है। इनमें आयागपटों एवं महावीर के गर्भापहरण के दृश्य से सम्बन्धित फलक प्रमुख हैं। व्यूहलर ने मथुरा के जैन अभिलेखों को भी प्रकाशित किया है, जिनसे मथुरा में जैन धर्म और संघ की स्थिति पर प्रकाश पड़ता है और यह भी ज्ञात होता है कि किस सीमा तक शासक वर्ग, व्यापारी, विदेशी एवं सामान्य जनों का जैन धर्म एवं कला को समर्थन मिला । वी० ए० स्मिथ ने मथुरा के जैन स्तूप और अन्य सामग्री पर एक पुस्तक प्रकाशित की है, जिसमें उन्होंने साहित्यिक साक्ष्यों को विश्वसनीय मानते हए मथुरा के जैन स्तूप को भारत का प्राचीनतम स्थापत्यगत अवशेष माना है। स्मिथ ने जैन आयागपटों, विशिष्ट फलकों एवं कुछ
१ दक्षिण भारत की जैन मूर्तिकला दिगम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध है। २ कनिंघम, ए०, आ०स०ई०रि०,१८६४-६५, खं० २, पृ० ३६२-६५,४०१-०४,४१२-१४,४३१-३५,१८७१-७२,
खं० ३, पृ० १९-२०, ४५-४६ ३ स्मिथ, वी० ए०, वि जैन स्तूप ऐण्ड अवर एण्टिक्विटीज ऑव मथुरा, वाराणसी, १९६९ (पु० मु०), पृ० २-४ ४ वही, पृ०३ ५ ब्यूहलर, जी०, 'स्पेसिमेन्स ऑव जैन स्कल्पचर्स फ्राम मथुरा', एपि० इण्डि०, खं० २, पृ० ३११-२३ ६ व्यूहलर, जी०, 'न्यू जैन इन्स्क्रिप्शन्स फ्राम मथुरा', एपि० इण्डि०, खं० १, पृ० ३७१, ९३; 'फर्दर जैन
इन्स्क्रिप्शन्स फ्राम मथुरा', एपि० इण्डि०, खं० १, पृ० ३९३-९७; खं० २, पृ० १९५-२१२ ७ स्मिथ, वी० ए०, पू० नि०, पृ० १२-१३
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