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[ जैन प्रतिमाविज्ञान
माता-पिता, अष्ट-दिक्पालों, नवग्रहों, एवं अन्य देवों के प्रतिमा निरूपण से सम्बन्धित उल्लेख और उनकी पदार्थंगत अभिव्यक्ति भी सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में हुई । "
उत्तर भारत का क्षेत्र परम्परा - विरुद्ध और परम्परा में अप्राप्य प्रकार के चित्रणों की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था । देवगढ़ एवं खजुराहो की द्वितीर्थी, त्रितीर्थी जिन मूर्तियाँ, कुछ जिन मूर्तियों में परम्परा सम्मत यक्ष-यक्षियों की अनुपस्थिति, 3 देवगढ़ एवं खजुराहो की बाहुबली मूर्तियों में जिन मूर्तियों के समान अष्ट- प्रातिहार्यो एवं यक्ष-यक्षी का अंकन, देवगढ़ की त्रितोर्थी जिन मूर्तियों में जिनों के साथ बाहुबली, सरस्वती एवं भरत चक्रवर्ती का अंकन इस कोटि के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं । कुछ स्थलों (जालोर एवं कुम्भारिया) की मूर्तियों में चक्रेश्वरी एवं अम्बिका यक्षियों और सर्वानुभूति यक्ष के मस्तक पर सर्पफण प्रदर्शित हैं । कुम्भारिया, विमलवसही, तारंगा, लूणवसही आदि श्वेताम्बर स्थलों पर ऐसे कई देवों की मूर्तियाँ हैं जिनके उल्लेख किसी जैन ग्रन्थ में नहीं प्राप्त होते ।
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जैन शिल्प में एकरसता के परिहार के लिए, स्थापत्य के विशाल आयामों को तदनुरूप शिल्पगत वैविध्य से संयोजित करने के लिए एवं अन्य धर्मावलम्बियों को आकर्षित करने के लिए अन्य सम्प्रदायों के कुछ देवों को भी विभिन्न स्थलों पर आकलित किया गया । खजुराहो का पार्श्वनाथ जैन मन्दिर इसका एक प्रमुख उदाहरण है । मन्दिर के मण्डोवर परब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम एवं बलराम आदि की स्वतन्त्र एवं शक्तियों के साथ आलिंगन मूर्तियाँ हैं । मथुरा की एक अम्बिका मूर्ति में बलराम, कृष्ण, कुबेर एवं गणेश का, मथुरा एवं देवगढ़ की नेमि मूर्तियों में बलराम-कृष्ण का, विमलवसही की एक रोहिणी मूर्ति में शिव और गणेश का, ओसिया की देवकुलिकाओं और कुम्भारिया के नेमिनाथ मन्दिर पर गणेश का, " विमलवसही और लूणवसही में कृष्ण के जीवनदृश्यों का एवं विमलवसही में षोडश-भुज नरसिंह का अंकन ऐसे कुछ अन्य उदाहरण हैं ।
जटामुकुट से शोभित वृषभवाहना देवी का निरूपण श्वेताम्बर स्थलों पर विशेष लोकप्रिय था । देवी की दो ओं में सर्प एवं त्रिशूल हैं। देवी का लाक्षणिक स्वरूप पूर्णतः हिन्दू शिवा से प्रभावित है । कुछ श्वेताम्बर स्थलों पर प्रज्ञप्ति महाविद्या की एक भुजा में कुक्कुट प्रदर्शित है, जो हिन्दू कौमारी का प्रभाव है । ७ कुछ उदाहरणों में गौरी महाविद्या का वाहन गोधा के स्थान पर वृषभ है । यह हिन्दू माहेश्वरी का प्रभाव 1" राज्य संग्रहालय, लखनऊ (६६.२२५, जी ३१२ ) की दो अम्बिका मूर्तियों में देवी के हाथों में दर्पण, त्रिशूल -घण्टा और पुस्तक प्रदर्शित हैं, जो उमा और शिवा का प्रभाव है । "
१ दक्षिण भारत के मूर्ति अवशेषों में विद्याओं, २४ यक्षियों, आयागपट, जीवन्तस्वामी महावीर, के माता-पिता की मूर्तियाँ नहीं हैं ।
२ उत्तर भारत में होने वाले परिवर्तनों से दक्षिण भारत के कलाकार अपरिचित थे ।
३ गुजरात - राजस्थान की जिन मूर्तियों में सभी जिनों के साथ सर्वानुभूति एवं अम्बिका निरूपित हैं जो जैन परम्परा में नेमि के यक्ष-यक्षी हैं । ऋषभ एवं पार्श्व की कुछ मूर्तियों में पारम्परिक यक्ष-यक्षी भी अंकित हैं ।
४ ब्रुन, क्लाज, 'दि फिगर ऑव दिटू लोअर रिलीफ्स ऑन दि पार्श्वनाथ टेम्पल ऐट खजुराहो', आचार्य श्रीविजयवल्लभ सूरि स्मारक ग्रन्थ, बम्बई, १९५६, पृ० ७-३५
५ उल्लेखनीय है कि गणेश की लाक्षणिक विशेषताएँ सर्वप्रथम १४१२ ई० के जैन ग्रन्थ आचारदिनकर में ही निरू
जैन युगल एवं जिनों
पित हुईं।
६ राव, टी० ए० गोपीनाथ, एलिमेण्ट्स ऑव हिन्दू आइकनोग्राफी, खण्ड १, भाग २, वाराणसी, १९७१ (पु० मु० ), पृ० ३६६
७ वही, पृ० ३८७-८८
८ वही, पृ० ३६६, ३८७
९ वही, पृ० ३६०, ३६६, ३८७
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