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प्रथम अध्याय
प्रस्तावना
जैन कला एवं प्रतिमाविज्ञान पर पर्याप्त सामग्री सुलभ है । लेकिन अभी तक इस विषय पर अपेक्षित विस्तार से कार्य नहीं हुआ है । इसी दृष्टि से प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्यतः उत्तर भारत में जैन प्रतिमाविज्ञान के विस्तृत अध्ययन का प्रयास किया गया है । यद्यपि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से ग्रन्थ में यथासंभव दक्षिण भारत के जैन प्रतिमविज्ञान की भो स्थानस्थान पर चर्चा की गई है। उत्तर भारत से तात्पर्य विन्ध्यपर्वत श्रेणियों के उत्तर के भारतीय उपमहाद्वीप के क्षेत्र से है जो पश्चिम में गुजरात एवं पूर्व में उड़ीसा तक विस्तीर्ण है। जैन प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से उत्तर भारत का सम्पूर्ण क्षेत्र किन्हीं विशेषताओं के सन्दर्भ में एक सूत्र में बँधा है, और जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास को प्रारम्भिक और परवर्ती अवस्थाओं तथा उनमें होने वाले परिवर्तनों की दृष्टि से यह क्षेत्र महत्वपूर्ण भी है। जैन धर्म की दृष्टि से भी इसका महत्व है। इसी क्षेत्र में वर्तमान अवसर्पिणी युग के सभी चौबीस जिनों ने जन्म लिया, यही उनकी कार्य-स्थली थी, तथा यहीं उन्होंने निर्वाण भी प्राप्त किया। सम्भवतः इसी कारण प्रारम्भिक जैन ग्रंथों की रचना एवं कलात्मक अभिव्यक्तियों का मुख्य क्षेत्र भी उत्तर भारत ही रहा है। जैन आगमों का प्रारम्भिक संकलन एवं लेखन यहीं हुआ तथा प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रारम्भिक ग्रन्थ कल्पसूत्र, पउमचरिय, अंगविज्जा, वसुदेवहिण्डी, आवश्यक नियुक्ति आदि भी इसी क्षेत्र में लिखे गये ।
प्रतिमा लक्षणों के विकास की दृष्टि से भी उत्तर भारत का विविधतापूर्ण अग्रगामी योगदान है । इस विकास के तीन सन्दर्भ हैं : पारम्परिक, अपारम्परिक और अन्य धर्मों की कला परम्पराओं का प्रभाव ।
जैन प्रतिमाविज्ञान के पारम्परिक विकास का हर चरण सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में परिलक्षित होता है। जैन कला का उदय भी इसी क्षेत्र में हआ। महावीर की जीवन्तस्वामी मूर्ति इसी क्षेत्र से मिली है, जिसके निर्माण की परम्परा साहित्यिक साक्ष्यों के अनुसार महावीर के जीवनकाल (छठी शती ई०पू०) से ही थी। प्रारम्भिक जिन मूर्तियाँ लोहानीपूर (पटना) एवं चौसा ( भोजपुर ) से मिली हैं। मथुरा में शुंग-कुषाण युग में प्रचुर संख्या में जैन मूर्तियाँ निर्मित हुई। ऋषभ की लटकती जटा, पार्श्व के सात सर्पफण, जिनों के वक्षःस्थल में श्रीवत्स चिह्न और शीर्ष भाग में उष्णीष एवं जिन मूर्तियों में अष्ट-प्रातिहार्यों और ध्यानमुद्रा के प्रदर्शन की परम्परा मथुरा में ही प्रारम्भ हुई।
जिन मूर्तियों में लांछनों एवं यक्ष-यक्षी युगलों का चित्रण भी सर्वप्रथम इसी क्षेत्र में प्रारम्भ हुआ। जिनों के जीवनदृश्यों, विद्याओं, २४ यक्ष-यक्षियों, १४ या १६ मांगलिक स्वप्नों, भरत, बाहुबली, सरस्वती, क्षेत्रपाल, २४ जिनों के
१ शाह, यू० पी०, ‘ए यूनीक जैन इमेज ऑव जीवन्तस्वामी', ज०ओ०ई०, खं० १, अं० १, पृ० ७२-७९ २ दक्षिण भारत की जिन मर्तियों में उष्णीष नहीं प्रदर्शित हैं। श्रीवत्स चिह्न भी वक्षःस्थल के मध्य में न होकर
सामान्यतः दाहिनी ओर उत्कीर्ण है। दक्षिण भारत की जिन मतियों में श्रीवत्स चिह्न का अभाव भी दृष्टिगत होता है। उन्निथन, एन० जी०, 'रेलिक्स ऑव जैनिजम-आलतूर', ज०ई०हि०, खं० ४४, भाग १, पृ० ५४२; जै०क०स्था०,
खं० ३, पृ० ५५६ ३ सिंहासन, अशोकवृक्ष, प्रभामण्डल, छत्रत्रयी, देवदुन्दुभि, सुरपुष्प-वृष्टि, चामरधर, दिव्यध्वनि । ४ मथुरा के आयागपटों पर सर्वप्रथम ध्यानमुद्रा में आसीन जिन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुई। इसके पूर्व की मूर्तियों (लोहानीपुर, चौसा) में जिन कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े हैं ।
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