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प्रथम प्रशिद : जैनकुमारसम्भव महाकाव्य का महाकाव्यत्व,
किन्तु आचार्य विश्वनाथ और पण्डितराज जगन्नाथ ने मम्मट के इस (काव्य लक्षण विषयक) मत की कटु आलोचना की है।
विश्वनाथ कृत आलोचना
आचार्य मम्मट द्वारा काव्य को 'अनलङ्कृती' और इसके उदाहरण स्वरूप यः कौमारहरः --------- चेतः समुत्कण्ठते।। प्रस्तुत किये जाने की आचार्य विश्वनाथ ने कटु आलोचना की है। उन्होंने इस श्लोक में विभावना 'विभावना तु विना हेतुं कार्योत्पत्तिरुच्यते' और विशेषोक्ति 'सति हेतौ फलाभावो विशेषोक्तिस्तथा द्विधा' अर्थात् जहाँ बिना कारण के कार्य का वर्णन किया जाये वहाँ 'विभावना' और इसके विपरीत जहाँ कारण होने पर भी कार्य की उत्पत्ति न हो वहाँ 'विशेषोक्ति' अलङ्कार इन्हें निकालने का प्रयास किया है परन्तु उनकी यह धारणा युक्ति संगत नहीं है क्योंकि ये दोनों अलङ्कार भावमुखेन नहीं, अभावमुखेन निकलते है।"
अदोषौ पद की आलोचना
आचार्य विश्वनाथ के मत में दोष-रहित काव्य संसार में हो ही नहीं सकता। यदि कहीं मिल भी गया, तो बहुत कम मिलेगा। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि स्वयं साहित्यदर्पणकार ने साधारण दोषों के रहते हुए भी काव्य में काव्यत्व स्वीकार किया है
"कीटानुविद्दरत्नादि साधारण्येन काव्यता। दुष्टेष्वपि मता यत्र रसाद्यनुगमः स्फुटः।।२"