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श्री ||२|| मामरू दिव्या थारी हो गज होदे मु क्ति पधारिया तुम जनम्या ही परमाण पिता नाभ म्हाराजा हो भव देव तणो कर नर थया प्रभु पाम्यां पद निरखाण || श्री ||३|| भरतादिक सौ नँदन हो वे पुत्री ब्राह्मी सुंदरी || प्रभु ए थारा अंग जात सगला केबल पाया हो समा या अविचल जोत में केइ त्रिभुवन में विष्या
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'त || || श्री ॥ इत्यादिक वहू तारया हो जिन
- कुल में प्रभु तुम ऊपना केइ आगम में अधि
'कार और असंख्या तारया हो ऊधारया सेवक
आपरा प्रभू सरणाही साधार॥ श्राश्री || असंरण
सरण कही जैहो प्रभु बिरधे विचारो सार्यवा केइ अहो गरीब निबाज सरणं तुम्हारी आयो होहु चाकर निज चरना तणो म्हारी सुखिये अरज अवाज॥६॥ श्रतः करुणा कर ठाकुर