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पृष्ठ भूमि स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आर्थिक आदि सभी अवस्थाएं पृथक् - पृथक दृष्टिगोचर होती हैं । इसी प्रकार क्षेत्र की अपेक्षा भी कहीं पर संहार हो रहा हैं , कहीं पर निर्माण, कहीं पर उत्सव मनाये जाते हैं और उसी समय कहीं पर शोक छाया होता है । इसी प्रकार आभ्यन्तर जगत्में भी सब प्राणियों की चित्तवृत्तियाँ पृथक्-पृथक् दृष्टिगोचर होती हैं, इस प्रकार सर्वत्र बाह्याभ्यन्तर जगत् में विषमता ही विषमता दृष्टिगोचर होती है।
___ इन विषमताओंसे यह अनुमान किया जा सकता है कि विश्व में एक ऐसी अद्भुत शक्ति है, जो स्वतंत्र आत्माको विवश बनाकर, संसार में इतनी विविधता, विचित्रता और विषमतायें उत्पन्न कर रही है। जैन दर्शन में उस शक्ति को “कर्म" कहा जाता है । वेदान्त दर्शन में “माया” या अविद्या, सांख्य दर्शन में प्रकृति, वैशेषिक दर्शनमें अदृष्ट या संस्कार कहा जाता है।'
जीव के स्वयंकृत कर्मों में वैषम्य है, इसी कारण उससे उत्पन्न होने वाला बाह्याभ्यन्तर जगत् भी वैषम्यपूर्ण दिखाई देता है, क्योंकि कारण से ही कार्य का अनुमान किया जा सकता है ।।
__ बाह्याभ्यन्तर जगत् का यह वैषम्य सत्य है या असत्य, स्वाभाविक है या आगन्तुक, अहेतुक है या सहेतुक यह बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । चार्वाक दर्शन इस वैषम्य को सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक मानता है, परन्तु यदि यह सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक होता तो इसे दु:ख का कारण नहीं होना चाहिए था और इसका नाश नहीं होना चाहिए, परन्तु यह साक्षात् दु:खकारी तथा सन्तापकारी देखा जाता है और योगीजन इस वैषम्य से अतीत देखे जाते हैं, इसीलिए इसे कभी सत्य, स्वाभाविक और अहेतुक नहीं कहा जा सकता। लोक में प्रसिद्ध इन्द्रिय ज्ञान की असत्यता से यह सिद्ध होता है कि बाह्य तथा आभ्यन्तर जगत् असत् है, क्योंकि सत् सदा अनादि निधन, स्वत: सिद्ध, स्वाधीन और निर्विकल्पक होता है, जैसा कि पंचाध्यायी में कहा गया है -
तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यत: स्वत: सिद्धम्।
तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च॥' १. आत्माराम, जैन तत्त्वकलिका, १९८२, छठी कलिका, पृ० १४५, २. उपादान कारण सदृशं कार्यम् भवति, देवसेनाचार्य, बृहद्नयचक्र वि०स० १९७७, गाथा ३६८
की चूलिका ३. राजमल , पंचाध्यायी, पूर्वार्ध, श्लोक-८
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