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कर्म बन्धके कारण तथा भेदप्रभेद
૨૨૭ चिन्तनका अनुमान कर लेता है।'
ऋजुमतिकी अपेक्षा विपुलमति विशुद्धतर होता है, क्योंकि वह सूक्ष्मतर और अधिक विषयों को स्पष्ट जान सकता है । ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद नष्ट भी हो सकता है परन्तु विपुलमति केवलज्ञानकी प्राप्ति तक रहता है। उपरोक्त सभी मन:पर्ययज्ञानोंको आवरण करने वाले कर्मोंको मन:पर्यय ज्ञानावरणीय कहते हैं। ५. केवलज्ञानावरणीय
केवलज्ञानावरण सर्वघाती प्रकृति है क्योंकि यह पूर्णतया केवलज्ञानको आवृत किये होती है। केवलज्ञानावरणीय कर्मको केवलज्ञानके स्वरूपके बिना नहीं जाना जा सकता । अत: पहले केवलज्ञान का सामान्य परिचय आवश्यक है | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशमें केवलज्ञानका परिचय देते हुए कहा है - केवलज्ञान जीवन्मुक्त योगियों का एक निर्विकल्प अतीन्द्रिय और अतिशय ज्ञान है, जो मन तथा बुद्धिके प्रयोगके बिना ही सर्वकाल व सर्वक्षेत्रमें सर्वपदाथों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जानता है। इसी कारण वे योगी सर्वज्ञ कहलाते हैं। केवलज्ञान की विशेषतायें निम्न प्रकार कही गयी हैं ।
केवलज्ञान सर्वांगसे जानता है - आवरण कर्मों के विनाश हो जाने पर
केवली सभी अवयवोंसे पदार्थों को जानता है। २. केवलज्ञानमें तीनों लोक प्रतिबिम्बवत् झलकने लगते हैं। ३. केवलज्ञानमें त्रिकालवर्ती पदार्थ एक समयमें ही भासित होते हैं। ४. केवलज्ञान सभी पदार्थों को अक्रम रूपसे अर्थात् युगपत जानता है ।
सुखलाल ने संक्षेपमें इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है - यह ज्ञान चेतनाशक्तिके पूर्ण विकासके समय प्रगट होता है। अत: इसके अपूर्णताजन्य भेद प्रभेद नहीं हैं । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है, जो केवलज्ञान द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके। इसीलिए केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों और सब पर्यायोंमें मानी जाती है। उमा स्वामी ने सूत्र में कहा भी है “सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य।"७ १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० २९ २. विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः, तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २४ ३. कर्मग्रन्थ, भाग १, गाथा ९, पृ० ३० ४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १४४ ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग दो, पृ० १४६ ६. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन, पृ० ३२ ७. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र २९
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