Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 226
________________ २०४ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन तीन और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन सप्त प्रकृतियों के सर्वथा विनाशसे जीव क्षायिक सम्यक्दृष्टि कहा जाता है । क्षायिक सम्यक्दृष्टि की विशेषता दर्शाते हुए वीरसेन स्वामी ने पुन: कहा है खइयसम्माइट्ठीण कयाइ वि मिच्छत्तं गच्छई, ण कुणई। संदेहं पि मिच्छत्तुब्भवं दवण णो विम्हयं जायदि।' अर्थात् क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व और सन्देह को प्राप्त नहीं होता और मिथ्यात्व जन्य अतिशयोंको देखकर विस्मयको भी प्राप्त नहीं होता । नेमिचन्द्राचार्यने ऐसे सम्यक्त्वको मेरुके समान निष्कम्प, निर्मल तथा अक्षय अनन्त कहा है सत्तण्णं पयड़ीणं खयादु खइयं तु हो दि सम्मत्तं । मेरु वि णिप्पकंपं सुणिम्मलं अक्खयमणंतं ॥२ क्षायिक सम्यक्दृष्टि जीव का सम्यक्त्व अक्षय और अनन्त होने के कारण ही चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर अन्तिम गुणस्थान तक स्थिर रहता है और वह जीव सर्वकर्म प्रकृतियों का विनाश कर परमात्म स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। ग. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव जब वासनाओंका आंशिक रूपमें क्षय और आंशिक रूपमें ही उपशम करके यथार्थताका बोध करता है, उस समय उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। वीरसेनस्वामीने इसका प्रतिपादन करते हुए कहा है दसणमोहुदयादो उप्पज्जई जं पयत्व सद्दहणं। चलमलिनगाढं तं वेदग सम्मत्तमिहमुणसु॥ दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे जो चल, मलिन, और अगाढ़ रूप श्रद्धा होती है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं । वेदक सम्यक्त्व ही क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है- खओवसमियं वेदगसम्मत्तमिदि घड़दे"" इस सम्यक्त्व में अस्थायित्व और मलिनता होती है, इस कारण दमित वासनाओंके पुन: प्रकट होनेकी सम्भावना रहती है। १. षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ लब्धिसार,गाथा १६४ षट्खण्डागम धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४५, पृ० ३९६ वही, सूत्र १४४ पृ० ३९६ षट्खण्डागम, धवलाटीका, सूत्र ५, पुस्तक ५, पृ० २०० ४. ५. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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