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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन
४. असंयतसम्यग्दृष्टि
असंयत्सम्यग्दृष्टिकी परिभाषा करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है“समीचीन दृष्टि: श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टि: असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च असंयतसम्यग्दृष्टि:" १
तात्पर्य यह है कि तृतीय गुणस्थानवर्ती जीव जिस समय सम्यक्की ओर उन्मुख होता है, तो वह चतुर्थ गुणस्थानमें आ जाता है । इस गुणस्थान वाले जीवकी श्रद्धा सम्यक होती है अर्थात् वह सत्यको सत्यके रूपमें और असत्यको असत्यके रूपमें ही समझता है, परन्तु तदनुसार आचरण नहीं कर पाता, इसी कारण उसे असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। इस प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीवका ज्ञानात्मक और श्रद्धात्मक पक्ष तो सम्यक होता है, परन्तु आचरणात्मक पक्ष सम्यक् नहीं होता। ___चतुर्थ गुणस्थानवी जीवकी तुलना गीताके “सम्यव्यवसित पुरुष से की जा सकती है। गीताके नवम् अध्यायमें कहा गया है कि जिसका निश्चय यथार्थ है, यदि वह आचरणसे रहित भी है तब भी उसे साधु ही समझना चाहिए। क्योंकि आचरणसे रहित यथार्थ श्रद्धा वाला जीव, अपनी सत्य श्रद्धाको कभी न कभी कार्यान्वित अवश्य ही कर लेता है, परन्तु सम्यक् श्रद्धाके अभावमें सम्यक् आचरण करना कदापि सम्भव नहीं है। सम्यक् श्रद्धाके कारण वह सांसारिक भोगोंको भोगता हुआ भी उनको त्याज्य ही समझता है । पंचाध्यायीके श्लोक के अनुसार, "उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टैर्दुष्टरोगवत्" अर्थात जैसे रोगको अनुभूत करते हुए भी रोगीको रोगमें आसक्ति नहीं होती इसी प्रकार सम्यक् दृष्टिकी भोग को भोगते हुए भी उसमें आसक्तिनहीं होती अपितु रोगकी तरह उपेक्षा भाव ही रहता है। त्रिविध सम्यक्दृष्टि
सम्यक् दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं - औपशमिक, क्षायिक, और क्षायोपशमिक । ये तीनों अवस्थायें मोहनीय कर्मकी सात प्रकृतियों (दर्शन मोहकी तीन और अनन्तानुबन्धीचतुष्क) के प्रशम, क्षय और क्षयोपशम से प्राप्त
१. २. ३.
धवला, पुस्तक, १, खण्ड १, सूत्र १२, पृ० १७१ गीता, अध्याय ९, श्लोक ३० पंचाध्यायी, उत्तरार्ध, श्लोक २६१ पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय ५, मोहनीय कर्म
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