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जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन
अर्थात् जिन जीवोंकी कषाय उपशान्त हो गयी हैं और राग विनष्ट हो गया है, परन्तु ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मों के सूक्ष्म आवरणसे जो आवृत हैं, वे जीव “उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ" कहे जाते हैं । वीतराग विशेषणसे दशमगुणस्थान तकके सराग छद्मस्थोंका निराकरण हो जाता है ।
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उपशान्तकषाय गुणस्थानमें केवल उपशम श्रेणी वाला जीव ही आरोहण करता है, जैसा कि इसके नामसे ही स्पष्ट है। इस गुणस्थान में जीव अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। इसके पश्चात् कषायके जागृत हो जाने से पुन: नीचे गिर जाता है, पतनके बाद पुनः क्षायिक श्रेणी द्वारा विकासकी ओर उन्मुख होता है और मुक्तिको प्राप्त करता है ।
१२. क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्य गुणस्थान-
क्षपक श्रेणी वाले जीव ग्याहरवें गुणस्थान में न जाकर दसवेंसे बारहवें गुणस्थान में आते हैं । इस गुणस्थानका लक्षण करते हुए धवलामें कहा गया है
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" क्षीणः कषायो येषां ते क्षीणकषायाः ।” क्षीणकषायाश्च ते वीतरागाश्च क्षीणकषायवीतरागा: छद्मनि आवरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । क्षीणकषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्था: " । अर्थात् जिन जीवों की कषाय क्षीण हो गयी है, वीतरागी हैं परन्तु ज्ञान और दर्शनके आवरण में रहते हैं, उन्हें क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं ।
सबसे प्रबल माना जाने वाला मोहनीय कर्मका आवरण इस गुणस्थान में पूर्णतया नष्ट हो जाता है । परन्तु ज्ञान और दर्शनके किंचित् मात्र आवरण शेष रह जाते हैं । जीवके गुणों का घात करने वाले चार घातिया कर्मोंका उदय इस गुणस्थानसे आगे नहीं होता। इस सोपान पर आ जाने पर पुन: पतनका कोई भय नहीं रहता । यह चारित्रकी उच्चतम अवस्था है ।
१३. सयोग केवली गुणस्थान
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जैन दर्शनके अनुसार व्यक्ति अपने कर्मोंका विनाश करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। उस परमात्माकी दो अवस्थायें होती हैं - एक शरीर सहित जीवनमुक्त अवस्था और दूसरी शरीर रहित देह मुक्त अवस्था । प्रथम शरीर सहित जीवनमुक्त अवस्था ही सयोग केवली गुणस्थान कहलाता है। इस अवस्थामें जीव यद्यपि परमात्म संज्ञाको प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु फिर भी वे तीनों योगों सहित होते हैं, इसीलिए उन्हें सयोगी कहते हैं और
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षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र २०, पृ० १८९
षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र २३, पृ० १९१
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