Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 235
________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २१३ इस गुणस्थानकी तुलना बौद्धमान्य सुदुर्जया भूमिसे की जा सकती है जो अतिकठिनतासे प्राप्त होती है। १०. सूक्मसाम्परायगुणस्थान राजवार्तिककारने सूक्ष्मसाम्परायका व्युत्पत्ति अर्थ करते हुए कहा है “साम्पराय: कषाय: यत्र सूक्ष्म भावेनोपशान्ति क्षयं च आपद्यते तौ सूक्ष्मसाम्परायौ वेदितव्यौ । अर्थात् साम्पराय कषायोंका सूक्ष्म रूपसे भी उपशम या क्षय करने बाला, सूक्ष्मसाम्प्राय उपशमक या क्षपक कहलाता है। इस गुणस्थानकी प्राप्ति चारित्रमोहकी अठाईस कर्म प्रकृतियों में से सत्ताईस कर्मप्रकृतियोंके क्षय अथवा उपशमसे होती है। एक मात्र सूक्ष्मरूपसे संज्वलन लोभ शेष रह जाता है। डॉ० नथमल टॉटिया ने विकासके इस उच्च सोपानपर रहने वाले सूक्ष्म लोभकी व्याख्या, अवचेतन रूपमें शरीर के प्रति रहने वाले रागके अर्थमें की है। यह राग कुसुमली रंगके समान अत्यन्त कम लालिमा वाला होता है। इस गुणस्थानमें जीव कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहर्त तक रहता है। इस गुणस्थानसे आगे पाँचज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यश:कीर्ति और उच्चगोत्र इन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । इस गुणस्थान तक वेदनीय कर्मकी साता प्रकृतिको छोड़कर शेष सभी की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है।' ११. उपशान्तकषाय वीतराग छस्थ गुमणस्थान ग्याहरवें गुणस्थानका लक्षण करते हुए धवलामें कहा गया है उपशान्त कषायो येषां ते उपशान्त कषाया: । वीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागा:। छदृमज्ञानदृगावरणे तत्र तिष्ठन्तीति छद्मस्था: । वीतरागश्च ते छद्मस्था: वीतरागछद्मस्थाः। एतेन सरागछद्मस्थस्य निराकृतिरवगन्तव्याः । उपशान्तकषायश्च ते वीतरागछद्मस्थाश्च उपशान्तकषायवीतराग छद्मस्था: ।५ . १. राजवार्तिक अध्याय ९, सूत्र १, पृ०५९० टॉटिया नथमल, स्टडीज इन जैन फिलॉसफी, पृ० २७८ पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, श्लोक २२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ०९९ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १९, पृ० १८८ ५. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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