Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 225
________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था २०३ होती हैं । इस विषयका प्रतिपादन ज्ञानार्णवसे उद्धृत निम्न श्लोकमें किया गया है सप्तानां प्रशमात्सम्यक् क्षयादुभयतोऽपि च। प्रकृतीनामिति प्राहुस्त्रैविध्यं सुमेधसः ॥' सात प्रकृतियों के प्रशम अर्थात् उपशमसे औपशमिक, क्षयसे क्षायिक और क्षयोपशमसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होता है, परन्तु इस अवस्थामें चारित्र मोहनीय कर्मके अन्य अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय (चारित्र-मोहकी शेष २१ कषाय) का उदय रहनेसे वह असंयत होता है। क. औपशमिक सम्यकदृष्टि उपशमसे होने वाले औपशमिक सम्यग्दृष्टिका वर्णन करते हुए वीरसेनस्वामी ने कहा है "दंसणमोहुवसमादो उप्पजइयजं पयत्थ सद्दहणं। उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमम्॥' जीव जिस समय दर्शनमोहकी प्रकृतियोंका उपशम कर अर्थात् दबा कर आगे बढ़ता है, उस समय उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है, उपशम सम्यक्त्वकी तुलना ऐसे जलसे की जा सकती है जिसका मल अथवा कीचड़ नीचे बैठ गई है। यद्यपि ऐसा सम्यक्त्व वर्तमान अवस्थामें शुद्धहोता है, परन्तु उसके मलयुक्त होनेकी शीघ्र ही संभावना रहती है। यह सम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानसे प्रारम्भ होता है और ग्यारहवें गुणस्थान तक रहता है। ख. क्षायिक सम्यकदृष्टि पूज्यपाद स्वामीने क्षयका अर्थ करते हुए कहा है “क्षय आत्यन्तिकी निवृत्ति:" कर्मों का आत्मासे सर्वथा दूर हो जाना क्षय कहलाता है और कर्मोका क्षय करने वाला जीव क्षायिक सम्यक्दृष्टि होता है। .. वीरसेन स्वामीने क्षायिक सम्यक्दृष्टिका प्रतिपादन करते हुए कहा है. “एदासिं सत्तण्हं णिरवसेसखएण खइयसम्माइट्ठी उच्यई । ६ दर्शन मोहकी १. २. ३. १. ज्ञानार्णव, अधिकार ६, श्लोक ७ पूर्वनिर्दिष्ट, अध्याय ५, मोहनीय कर्म गोम्मटसार जीव काण्ड, गाथा २६ षट्खण्डागम, धवला टीका पुस्तक १, भाग १, सूत्र १४४, पृ० ३९६ सर्वार्थसिद्धि, अध्याय २, सूत्र १, पृ० १४९ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १२, पृ० १७१ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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