Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 231
________________ २०९ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था प्रमाद जनित कोंका भी अभाव हो जाता है। वीरसेन स्वामी ने इस गुणस्थानका लक्षण करते हुए कहा है- “प्रमत्तसंयता: पूर्वोक्त लक्षणा:", न प्रमत्तसंयता अप्रमत्त संयता: “पंचदशप्रमाद रहित संयता इति यावत्" प्रमत्तसंयत जीवका निर्देश पहले किया जा चुका है, पन्द्रह प्रमादोंसे रहित जीव अप्रमत्त संयत कहलाता है। संज्वलनादि कषायों के तीव्र उदयसे जीव प्रमत्त कहलाता है, अर्थात् वह अपने लक्ष्यके प्रति पूर्ण सावधान नहीं रह पाता । कषायोंकी मन्दता हो जाने पर प्रमादजनित दोष समाप्त हो जाते हैं और जीव अप्रमत्त संयत हो जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने जीवकाण्ड में अप्रमत्त संयत जीवकी उक्त विशेषताओंको निम्न गाथामें कहा है संजलणणोकसायाणुदयो मंदो जदा तदा होदि। अपमत्त गुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि॥२ अप्रमत्तसंयत जीवके आरोहण और अवरोहण के क्रमको दर्शाते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है तस्स संकिलेस विसोहीहि सह पमत्तापुव्वगुणमोत्तूण गुणंतरगमणभावा । मदस्स वि असंजदसम्मादिठिवदिरित्त गुणंतरगमणाभाव। अर्थात् अप्रमत्तसंयत जीवमें किसी कारणवश संकलेश परिणामकी वृद्धि हो जाये तो वह प्रमत्तगुणस्थानमें आता है यदि विशुद्ध परिणामों की वृद्धि हो जाये तो वह अग्रिम अपूर्वकरण गुणस्थानमें चला जाता है परन्तु मृत्युके समय चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें आ जाता है। लब्धिसारमें भी यही विवरण प्राप्त होता है। अप्रमत्त संयत अवस्था में जीव निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्तयानगृद्धि इन तीन प्रकारकी तीव्र निद्राओंपर विजय पा लेता है। अप्रमत्त संयत गुणस्थानमें जीव मन्द कषायोंसे संघर्ष करता रहता है । दयानन्द भार्गवने इस अवस्था की तुलना लकड़ीके ऐसे टुकड़े से की है, जो लहरों के उतार चढ़ाव से MM षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १५, पृ० १७८ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ४५ षट्खण्डागम धवला टीका, पुस्तक ४, भाग १, सूत्र ९, पृ० ३४३ लब्धिसार,गाथा ३४५. पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ५, दर्शनावरणीय कर्म Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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