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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन ऊपर नीचे होता रहता है ।' डॉ० ग्लॉसनैपके अनुसार इस गुणस्थानमें जीव अन्तर्मुहुर्तसे अधिक समय तक नहीं रह सकता और इस गुणस्थानसे आग देवायुका बन्ध भी नहीं होता। दो श्रेणियाँ
सप्तम गुणस्थानसे आगे जीव दो रूपोंमें कर्मोंपर विजय करता है । जिसे जैन पारिभाषिक शब्दों में श्रेणी कहा जाता है। प्रथम उपशम श्रेणी और दूसरी क्षपक श्रेणी । राजवार्तिककार अकलंकभट्टके शब्दोंमें
“इत ऊर्ध्व गुणस्थानानां चतुर्णा द्वे श्रेण्यौ भवत: उपशमकश्रेणी क्षपक श्रेणी
चेति । क. उपशम श्रेणी
उपशमक श्रेणी में मोहनीय कर्मका समूल नाश नहीं किया जाता अपितु साधक कर्मों को दमित करता हुआ अर्थात् दबाता हुआ आगे बढ़ता है “यत्र मोहनीर्य कर्मोपशमयन्नात्मा आरोहति सोपशमक श्रेणी। इस अवस्था में एक प्रकारसे शत्रु सेनाका अवरोध करते हुए प्रगतिकी जाती है। इसी कारण यह विजय यात्रा विजेताके लिए अहितकर होती है, क्योंकि अवरुद्ध की गई कर्मशक्ति कभी भी समय पाकर पुन: उसपर आक्रमण कर सकती है। इसकी उपमा ऐसे पानीसे दी जा सकती है, जिसकी गन्दगीको फिटकरी आदि के द्वारा नीचे तलमें बिठा दिया जाता है और कुछ समयके लिए पानी बिल्कुल स्वच्छ हो जाता है । इस अल्पकालिक विशुद्धिके कारण ही उपशमश्रेणी वाला जीव अपने कर्मोन्मूलनके क्रमको समाप्त कर अन्तिम सोपान तक नहीं जा सकता । ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर पुन: कर्मों के प्रगट हो जाने से जीव नीचे गिर जाता है । वीरसेन स्वामीके मत में
“ओवसमियं चारित्तं ण मोक्खकारणं, अंतोमुत्तकालादो उवरि णिच्छएण मोहोदयणिबंधणत्तादो""
औपशमिक चारित्र मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् निश्चयसे चारित्र मोह का उदय हो जाता है। १. जैन एथिक्स, पृ० २१६ । २. . (क) गलैसनैप डॉक्टराइन ऑफ कर्म इन जैन फिलासफी पृ० ८३, ८४
(ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, पृ० ९८ तत्त्वार्थराजवार्तिकालंकार, अध्याय ९, सूत्र १, वार्तिक १८, पृ० ५९० षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, भाग १, सूत्र १४, पृ० ३१७
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