Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 228
________________ २०६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन “संयताश्च ते असंयताश्च संयतासंयता:" करते हुए कहा है जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं उन्हें संयतासंयत कहते हैं | संयम धारण करने वाला संयत कहलाता है और संयम धारण करनेकी अभ्यास दशामें कुछ संयम और कुछ असंयम अर्थात् एकदेश संयम धारण करने वालेको संयतासंयत कहते हैं। श्री जिनेन्द्र वर्णीके मतमें संयम धारण करने की अभ्यासदशा में कुछ असंयम परिणामसे युक्त श्रावक संयतासंयत कहलाता है। एक ही जीवमें संयम तथा असंयम दोनों विरोधी भाव कैसे सम्भव हो सकते हैं, इस तथ्य का विश्लेषण करते हुए वीरसेन स्वामी ने कहा है "संयमासंयमयोरेकद्रव्यवर्तिनस्त्रसस्थावर निबन्धनत्वात्। ३ अर्थात संयम और असंयम इन दोनों भावोंकी उत्पत्ति के कारण भिन्न भिन्न हैं । त्रस प्राणियों (दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) की हिंसा से विरत अर्थात् वैराग्य रखने वालेको संयत कहा गया है और स्थावर अर्थात् एकेन्द्रिय जीवों की हिंसासे अविरत अर्थात् वैराग्य न रखने वाले जीवको असंयत कहा जाता है। पंचम गुणस्थानवी जीव त्रस जीवोंकी हिंसासे संयत होते हुए भी स्थावर जीवोंकी हिंसा से संयतं नहीं होता, इसी कारण एक ही जीवमें दोनों भाव घटित हो जाते हैं । इस गुणस्थानको एकदेश संयमकी अपेक्षा "देश विरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान" भी कहा जाता है। डॉ० सागरमल के अनुसार यह श्रद्धा की अपेक्षासे पंचमगुणस्थान है परन्तु आचरणकी अपेक्षासे प्रथम ही समझना चाहिए, क्योंकि सम्यक्श्रद्धाका आचरण रूपमें अभ्यासका प्रारम्भ इसी गुणस्थानसे होता है।' पंचम गुणस्थानकी प्राप्तिके लिए "अप्रत्याख्यानावरणीय" नामक चार कषायों पर नियन्त्रण करना आवश्यक होता है। इन कषायोंका वर्णन चारित्र मोहनीय कर्ममें निर्दिष्ट किया गया है। जीव इन कषायोंपर नियन्त्रण किये बिना आचरण करने में समर्थ नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कर्मके दूर होने पर ही श्रावक एक देश आचरण करने में समर्थ होता है। साधक साधना पथ पर चलते हुए फिसलता तो है, परन्तु उसमें सम्भलनेकी क्षमता भी रहती है। इसी कारण देश १. २. ३. धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, पृ० १३४ धवला पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७३ सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त एक अध्ययन, पृ०१० वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं०३ षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, भाग १, सूत्र १३, पृ० १७४ जैन एथिक्स, पृ० २१५ ६. ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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