Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 204
________________ १८२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन उपरोक्त पंचलब्धियोंमें प्रथम चार लब्धियाँ सामान्य हैं | ये भव्य और अभव्य दोनों जीवोंको प्राप्त होती हैं, परन्तु करण लब्धि केवल भव्य जीवोंको अर्थात् जिनकी श्रद्धा सम्यक् हो जाती है उनको ही प्राप्त होती है। दयानन्द भार्गवने भी कहा है कि चारों लब्धियोंकी सार्थकता पंचम् लब्धिकी प्राप्तिसे ही होती है । २ श्रीजिनेन्द्रवर्णीके शब्दोंमें ये वस्तुत: मुमुक्षुके पांच आद्य सोपान हैं जिनके द्वारा उत्तरोत्तर उन्नत होती हुई दृष्टि तत्त्वलोकमें प्रवेशपानेको समर्थ हो जाती है। २ अब क्रमश: पंचलब्धियोंका संक्षिप्त परिचय प्राप्त करना अनिवार्य है। १. क्षयोपशम लब्धि __ पंचलब्धियों में प्रथम लब्धि क्षयोपशम लब्धि है । क्षयका अर्थ है - कर्मों का नष्ट होना और उपशमका अर्थ है - कर्मों का विलोप होना । इस प्रकार पूर्व संचितकमों की शक्तिके अत्यन्त हीन होकर फलोन्मुख होनेको “क्षयोपशम लब्धि” कहते हैं। ऐसी अवस्थामें जीव को हिताहितका विवेक प्राप्त हो जाता है और वह पठन पाठन, मनन चिन्तन आदि में इस शक्तिका उपयोग करता है। यह लब्धि बुद्धि पूर्वक किये गये प्रयत्नसे प्राप्त नहीं होती अपितु स्वत: पुण्यके फलस्वरूप प्राप्त हो जाया करती है। डॉ० नथमल टॉटियाने भी कर्मोन्मूलनके क्रममें इस लब्धिके महत्त्वका कथन किया है। २. विशुद्धि लब्धि प्रथम क्षयोपशम लब्धिके परिणामस्वरूप जीवके पूर्व संचित् कर्मों की शक्ति इतनी घट जाती है कि जीवके परिणाम विशुद्ध होते जाते हैं। इस विशद्धिके कारण जीवको साता अर्थात् सुख पहुंचाने वाले कर्मों का उदय हो जाता है और असाता अर्थात् सुखके विरोधी कर्मों की हानि हो जाती है। श्री जिनेन्द्रवर्णीने विशुद्धिको प्राप्त जीवकी विशेषता पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि विशुद्धि लब्धिको प्राप्त जीव स्वदु:ख सहिष्णु और परदु:ख कातर बन १. षदखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, सूत्र १, पृ० २०५ २. भार्गव दयानन्द, जैन -एथिक्स, पृ० २०८ ३. कर्मरहस्य,पृ० १९२ ४. कम्ममलपडलसत्ती पड़िसमयमणंतगुणविहीणकमा। होदूणुदीरदि जदा, तदाखओवसमलद्धी दु । लब्धिसार, गाथा ४ जैन एथिक्स, पृ० २०८ ६. टॉटिया नथमल, स्टनडीज इन जैनिज़म,पृ० २७० अशभ कर्मानभागस्यानंतगणहानौ सत्यां तत्कार्यस्य संक्लेश परिणामस्य हार्नियथा भवति"- लब्धिसार टीका. गाथा ५ - Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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