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जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन . श्री जिनेन्द्र वर्णी ने देशनालब्धिका वर्णन करते हुए कहा है कि विनय, प्रेम, भक्ति, निरभिमानता आदि गुणों के प्राप्त होने पर ही शरणापन्न शिष्यको देशनालब्धिकी प्राप्ति होती है। गीताके चतुर्थ अध्यायमें भी ऐसा कहा गया है कि ज्ञानीजन, अभिमान रहित सेवाभावी और शरणापन्न शिष्यको ही तत्त्वज्ञानका उपदेश देते हैं। ४. प्रायोग्य लब्धि
देशनाको प्राप्त जीवका आत्मोत्कर्ष इतना बढ़ जाता है कि प्रायोग्य लब्धि में आयु कर्मको छोड़कर शेष समस्त कर्मों की स्थिति अन्त:कोटाकोटि वर्ष रह जाती है यह लब्धि भव्य और अभव्य दोनों को सामान्यरूपसे प्राप्त होती है।' कोटा कोटि जैन दर्शनकी एक पारिभाषिक संख्या है, जो एक करोडको एक करोड़से गुणा करने पर प्राप्त होती है। इस प्रमाणसे कम समयको अन्त:कोटोकोटि कहा जाता है। इस प्रकार प्रायोग्य लब्धिको प्राप्त जीवमें कर्मों की स्थितिको घटाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है ।
जैनदर्शनमें प्रायोग्य लब्धिका इतना ही कथन है कि कर्मों की स्थिति बहुत अधिक घट जाती है । करण लब्धिसे पूर्व ही कमों का इतना नाश होना इस बात का सूचक है कि देशनाको प्राप्त जीवका आत्मविश्वास दृढ हो जाता है और गुरूकी प्राप्ति हो जानेसे जीवका चित्त शान्त हो जाता है । श्री जिनेन्द्र वर्गीके शब्दोंमें करणानुयोगकी भाषा में जिसे कर्मों की स्थितिका अपकर्ष कहा जाता है उसे ही अध्यात्म भाषा में आत्मोत्कर्ष कह सकते हैं।' ५. करण लब्धि
पूर्व निर्दिष्ट चारों लब्धियोंकी सार्थकता करण लब्धि के प्राप्त होने पर ही है और यह लब्धि भव्य जीवोंको ही प्राप्त होती है । गोम्मटसार जीवकाण्डमें कहा है – “करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् ६ जैन दर्शनमें "भव्य" का अर्थ सम्यक श्रद्धा (सम्यग्दर्शन) प्रगट होने की योग्यता रखने वाला जीवहै । भव्य जीवोंमें १. कर्म सिद्धान्त, पृ० १४३ २. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ३४ ३. अंतोकोड़ाकोड़ी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं।
पाउग्ग लद्धिणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा || लब्धिसार गाथा ७ ४. पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ५, स्थितिबन्ध ५.. कर्म रहस्य, पृ० १९८ ६. गोम्टसार जीवकाण्ड, जीवतत्त्वप्रदीपिका, गाथा ६५१ ७. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १६१
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