Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 207
________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८५ संसारसे मुक्त होनेकी अथवा कर्मसन्ततिका विनाश करनेकी योग्यता होती है । ऐसी योग्यतासे रहित जीवोंको अभव्य कहा जाता है। पूर्वोक्त चार लब्धियाँ भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीव प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु करण लब्धिकी प्राप्ति केवल भव्य जीवोंको ही होती है । इस लब्धिको प्राप्त जीवोंकी श्रद्धा पूर्णतया सम्यक् हो जाती है और कर्म विनाश करने अथवा आत्मोन्नति करने के लिए जीवका आभ्यन्तर पुरूषार्थ प्रारम्भ हो जाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोशके अनुसार करण लब्धि तथा अन्तरंग पुरूषार्थमें केवल भाषाका ही भेद है । श्री जिनेन्द्र वर्णीने कहा है कि करणलब्धिको प्राप्त जीव अपने चित्तकी वृत्तियोंको बाहरसे भीतरकी ओर उसी प्रकार समेट लेता है, जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगोंको बाहरसे अन्दरकी ओर समेट लेता है। करण लब्धिको प्राप्त जीवकी तुलना गीताके स्थिर बुद्धिवाले पुरूषसे की जासकती है, जो अपनी इन्द्रियोंको विषयों से कछुएकी तरह समेट लेता है।' त्रिकरण करण तीन होते हैं-अध:करण या यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ।गोम्मटसारमें कहागयाहै-“करणानित्रीण्यध:प्रवृत्तापूर्वानिवृत्तिकरणानि"" - कर्मबन्ध अधिकारमें मोहनीय कर्मके दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं १. दर्शनमोह २. चारित्र मोह । दर्शन मोहके कारण जीवकी श्रद्धा विपरीत हो जाती है। विपरीतश्रद्धाको सम्यक बनाने के लिए अथवा दर्शन मोहके आवरणको नष्ट करने के लिए अथवा मानसिक ग्रन्थियोंका भेदन करनेके लिए जीवको त्रिकरणकी प्रक्रियामेंसे निकलना पड़ता है । डॉ० सागरमलने तीनों करणोंका विवेचन करते हुए कहा है कि मोहने आत्माको बन्दी बना रखा है। उस बन्दीगृहके तीन द्वार हैं। आत्माको मुक्त कराने के लिए तीनों द्वारोंके प्रहरियोंपर विजय लाभ करना आवश्यक है। इन पर विजय लाभ करने की प्रक्रियाको ग्रन्थिभेद कहते हैं । यह प्रक्रिया ही अध:करणादि त्रिकरणके द्वारा निर्दिष्ट की गई है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ० २२२ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग तीन, पृ०४२७ ३. कर्म रहस्य, पृ० १९९ ४. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५८ ५. गोम्मटसार कर्मकांड, गाथा ८९७, पृ० १०७६ ६. पंचम अध्याय • बन्धके कारण तथा भेद प्रभेद ७. वैशाली इन्स्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं. ३, हिन्दी भाग, पृ०८०, सन् १९८२ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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