Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 210
________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन अनुभागखण्डन वह अवस्था है, जिसमें कर्मों की तीव्रता अर्थात् प्रगाढतामें कमी आ जाती है अर्थात् कर्मों की शक्ति मन्द हो जाती है, जिससे जीवका आवरण झीना पड़ जाता है, यह मन्दता अशुभ कर्म में ही आती है, शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नहीं होता । लब्धिसार में कहा है - "सुहपयड़ीणं णियमा णत्थित्ति रसस्सखंडाणि”? १८८ अपूर्वकरणकी प्रक्रियामें डॉ० सागरमलने पंच " अपूर्व बन्ध” का भी कथन किया है, जिसका अर्थ है कि क्रियमाण क्रियाओंसे होने वाले बन्धका अल्पकालिक और अल्पतर मात्रामें ही बन्ध होना । इसीको लब्धिसारमें बन्धापसरण कहा गया है ।' स्थिति खण्डन और बन्धापसरण दोनोंका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, लब्धिसारकी टीकामें कहा है। “एकैकस्थितिखण्डनिपतनकाल:, एकैकस्थितिबन्धापसरण कालश्च समानावन्तर्मुहूर्तमात्रो"" इससे तात्पर्य यह है कि सत्तागत स्थितिका खण्डन और वर्तमान क्रियाओंसे होनेवाले बन्धका अल्पकालिक (बन्धापसरण) होना दोनों एक ही समयमें घटित होते हैं । बन्धापसरणकी तुलना गीताके निष्काम कर्म योगसे की जा सकती है। अतः बन्धअपसरण उसी अवस्थामें होता है जबकि जीवके अन्तःकरणसे राग द्वेष आदि कर्मशत्रुओं का अभाव हो जाता है । राग-द्वेष के नष्ट होनेपर क्रियमाण अर्थात् वर्तमान क्रियाओंके प्रति अनासक्ति हो जाती है और आसक्तिके अभावमें वह आगामी कर्मबन्ध करनेमें कार्यकारी नहीं होते अथवा कम शक्ति और स्थितिको लेकर कर्मबन्ध करते हैं । गीतामें राग और द्वेषको कल्याणमार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाला शत्रु कहा गया है । इनको वशमें करने पर ही निष्काम कर्म किया जा सकता है, " जो बन्धका कारण नहीं होता । ग. अनिवृत्तिकरण अनिवृत्तिका अर्थ करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है, “निवृत्तिर्व्यावृत्तिः, न विद्यते निवृत्तिर्येषां तेऽनिवृत्तयः " । " निवृत्ति शब्दका अर्थ व्यावृत्ति है, व्यावृत्ति का तात्पर्य है न छूटना । कभी व्यावृत्त न होने वाले परिणामोंको ही अनिवृत्ति कहते १. लब्धिसार, गाथा ८०, ८१ २. सागरमल, वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं० ३ पृ० ८३ ३. लब्धिसार, गाथा ५४ लब्धिसार, गाथा ७९ ४. ५. गीता, अध्याय ३, श्लोक ३४ ६. षट्खण्डागम, धवला टीका, पुस्तक १, खण्ड १, सूत्र १७, पृ० १८३ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244