Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 214
________________ १९२ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन बन्धके कारणों के दूर होनेपर जीव कर्म बन्धसे मुक्त हो जाता है। जैन दर्शनके अनुसार आत्माके गुणोंको आवृत करने वाले कर्मों में मोह ही प्रधान है। इस आवरणके हटते ही शेष आवरण सरलतासे हटाये जा सकते हैं। डॉ० सागर मल ने गुणस्थान सिद्धान्तकी विवेचना प्रधानतया मोह शक्तिकी तीव्रता, मन्दता तथा अभावके आधार पर ही की है। साधनाके लक्ष्यका बोधन होने देने वाली शक्ति को जैन दर्शनमें “दर्शन मोह" कहा जाता है, बोध होते हुए भी, जिस शक्तिके द्वारा स्वरूपाचरण नहीं हो पाता उसे चारित्र मोह कहते हैं। इनमें दर्शन मोह प्रबलतर है, क्योंकि बोधको प्राप्त आत्मा चारित्र मोह पर विजय पा ही लेता है। ___ जीवके आरोहण अवरोहण क्रममें अनन्त सोपान सम्भव हैं । उत्कृष्ट परिणामों से लेकर जघन्य परिणामों तक अनन्त हानि-वृद्धिके क्रमको कथनकी कोटिमें लानेके लिए उन्हें चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है। यह चौदह गुणस्थान इस प्रकार हैं१. मिथ्यादष्टि २. सासादन- सम्यग्दृष्टि ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि ४. असंयत सम्यग्दृष्टि ५. संयतासंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसाम्पराय ११. उपशान्तमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोग केवली १४. अयोगकेवली ।। यहाँ सम्यग्दृष्टिके लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है वह अन्त: दीपक है, इसीलिए वह अपनेसे नीचे के समस्त गुणस्थानोंके असंयतत्व को व्यक्त करता है। इससे ऊपर वाले गुणस्थानोंमें सर्वत्र संयम है। सम्यग्दृष्टि पद नदीके प्रवाहके समान ऊपरके समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्तिको प्राप्त करता है अर्थात् आगेके समस्त गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन पाया जाता है । प्रमत्त शब्द अन्त: दीपक है । इसलिए यह शब्द षष्टम् गुणस्थान से पूर्वके सम्पूर्ण गुणस्थानोंमें प्रमादके अस्तित्वको सूचित करता है। अर्थात षष्ट गुणस्थान तक सब प्रमत्त हैं और इससे ऊपर अप्रमत्त हैं । ग्यारहवें गुणस्थानमें आया हुआ छद्मस्थ पद अन्त:दीपक है, इस कारण यह अपनेसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानोंके १. . सागरमल, गुणस्थान सिद्धान्त -एक तुलनात्मक अध्ययन, पृ०७९ वैशाली इन्स्टीच्यूट रिसर्च, बुलेटिन नं०३, १९८२ २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-दो, पृ० २४५ ३. षट्खण्डागम १, भाग १, सूत्र ९.२२ ४. षट्खण्डागम, धवला, १, भाग १, पृ० १७३ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244