Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

View full book text
Previous | Next

Page 217
________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था १९५ सम्यक्मिथ्यात्व अथवा मिश्र गुणस्थानमें जघन्य बहिरात्मा होता है, क्योंकि बहिरात्मा का मुख्य कारण मिथ्यात्व भाव क्रमश: हीन होता जाता है। ___बाह्य ऐन्द्रिय विषयोंसे जीवकी दृष्टि हट कर जब अन्तर्मुखी हो जाती है और वह आत्मा और देहके भेदको जानने लगता है, तब वही जीव अन्तरात्मा कहलाता है। 'चतुर्थ अविरतगुणस्थानसे लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान तक जीव अन्तरात्मा होता है। बन्धके पांच कारणों में से योगको छोड कर शेष चार कारणों को जीत लेने वाला क्षीण मोहीजीव उत्कृष्ट अन्तरात्माहै, पंचमसे ग्याहरवें गुणस्थान तक के जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और चर्तुथगुणस्थानवर्ती अविरतसम्यक्दृष्टि जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं। कर्ममलसे रहित आत्माको परमात्मा कहा जाता है जो केवलज्ञानसे परिपूर्ण होता है। परमात्मा भी दो प्रकारका होता है-“परमप्पा वि य दुविहा अरहता तह य सिद्धाय" | जीवन्मुक्त सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थाको प्राप्त आत्मा अर्हन्त कहलाते हैं और विदेहमुक्त अवस्थाको प्राप्त सिद्ध कहलाते हैं।' १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-- मिथ्यादृष्टि शब्दका व्युत्पत्यर्थ करते हुए वीरसेनस्वामीने कहा है- “मिथ्या वितथा तत्र दृष्टि: रुचि: श्रद्धा प्रत्ययो येषां ते मिथ्यादृष्टयः५ अर्थात् मिथ्या शब्दका अर्थ है-वितथा, असत्य और दृष्टि शब्दका अर्थ है, रुचि, श्रद्धा या विश्वास । मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जिन जीवों को मिथ्या श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है, ऐसे जीवोंको मिथ्यादृष्टि जीव कहा जाता है। ऐसे जीव देह, स्त्री, पुत्रादिमें अनुरक्त होते हैं, विषय कषायसे संयुक्त होते हैं और अपने आत्म स्वभावसे विरत होते हैं। बाह्य पदार्थों में अनुरक्त होने के कारण मिथ्या श्रद्धा युक्त जीवों को बहिरात्मा भी कहा जाता है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अनेक प्रकारके कर्मों से बन्धा हुआ संसारमें परिभ्रमण करता रहता है। १. जे जिण-वयणेकुसला यं जाणंति जीव देहाणं णिज्जिय दुट्ठट्ठ मया अंतरप्पा य ते तिविहा । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९४ २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९५-१९७ ३. वही, गाथा १९२ ४. ससरीरा अरहता केवलणाणेण मुणिय सयलथा। ___णाण सरीरा सिद्धा सव्वुत्तम सुक्ख संपता।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा १९८ ५. षट्खण्डागम, धवला टीका, १ भाग १, पृ० १६२ ६. देहादिस अणरत्ता विसयासत्ताकसायसंजत्ता. अप्पसहावे सुत्ता ते साहू सम्मपरिचत्ता । कुन्दकुन्दाचार्य, रयणसार, गाथा १०६ ७. बहिरात्मा तुप्रथमं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेवनातिक्रमते, चैनसुखदास, जैनदर्शनसार,१९५०, पृ०९ ८. बंधई बहुविधकर्माणि येन संसारं भ्रमति, परमात्म प्रकाश, १, गाथा ७७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244