Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 219
________________ कर्म मुक्ति के विविध सोपान-गुणस्थान व्यवस्था १९७ मिथ्यात्वके वशीभूत हुआ प्राणी चाहे इन्द्रिय संयम आदि व्रतों का आचरण भी करता हो, परन्तु आत्मा अनात्माके ज्ञानसे रहित होने के कारण मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही अटका रहता है। इसी कारण समन्तभद्राचार्यने कहा है- “अश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्ततनूभृताम्" ।' गीतामें भी हठपूर्वक इन्द्रिय संयम करने वाले और मनसे विषयोंका स्मरण करने वाले अज्ञानी जीवको मिथ्याचारी कहा है,२ क्योंकि शरीर धारियोंको संसार में भटकाने वाला अज्ञान ही है। अज्ञानावस्था में की गई सभी क्रियायें निष्फल होती हैं, अत: अज्ञानसे बढ़कर अकल्याणकर अन्य कुछ नहीं है। __ अज्ञानका नाश किये बिना अग्रिम सोपानोंपर आरोहण असम्भव है। इस वर्गमें भी कुछ आत्मायें कषायोंके तीव्रतम वेगोंपर नियन्त्रण कर विकासाभिमुख हो जाते हैं। ऐसी आत्मायें दर्शनमोहकी ग्रन्थि को भेदने के लिए पूर्वोक्त'त्रिकरणकी प्रक्रियामें सफल होकर सीधा चतुर्थ सोपान को प्राप्त कर लेते हैं । भाग्यके भरोसे न रहकर जो आत्मा परिणाम विशुद्धिका निरन्तर अभ्यास करता है, वह क्रमश: उन्नतिको अवश्य प्राप्त कर लेता है।' इस गुणस्थानमें मिश्रमोहनीय कर्म, सम्यक्त्व मोहनीय कर्म, आहारकशरीर नाम कर्म, आहारक अंगोपांग नाम कर्म और तीर्थकर प्रकृति का उदय सम्भव नहीं है । मिथ्यात्वमोहनीय, नपुंसकवेद, नरकआयु, नरकगति, नरकगत्यानुपर्वी, एकसे चारइन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, असम्प्राप्तसृपाटिका संहनन, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण इन सोलह कर्म प्रकृतियोंका उदय केवल इसी गुणस्थानमें होता है। इससे आगे इनका उदय नहीं होता, क्योंकि ये सब प्रकतियाँ अत्यधिक निम्न कोटि की मानी जाती हैं। मिथ्यात्व प्रकृतिके अन्तके साथ ही इन सब प्रकृतियोंका अन्त हो जाता है। २. सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सासादनका लक्षण करते हुए पंच संग्रहमें यह गाथा कही गयी हैसम्मत्तरयणपव्वय सिहरा दो मिच्छभावसमभिमुहो। णा सिय सम्मत्तो सो सासण णामो मुणेयव्वो ॥६ MMS रत्नकरण्डश्रावकाचार,श्लोक ३४ भगवद्गीता, अध्याय ३, श्लोक ६ पूर्वनिर्दिष्ट अध्याय ६, पंच लब्धि कुरलकाव्य, परिच्छेद ६२, श्लोक १० मिच्छत्तहुडसंढासंपत्तेसक्खथावरादावं । सुहुमतियं वियलिंदी णिरयदुणिरयाउग मिच्छे ।। गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ९५ पंचसंग्रह, प्राकृत, अधिकार १, गाथा ९ __Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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