Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 208
________________ १८६ जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त-एक अध्ययन श्रावक प्रज्ञप्तिमें कहा गया है कि जिस समय कर्मबद्धता ढीली हो जाती है, उस समय आत्मामें ग्रन्थि भेदनकी शक्ति आ जाती है - तीइ वि यथोवमित्ते खविए इत्थतरम्भि जीवस्स । हवइ हु अभिन्नपुव्वो गंठी एवं जिणा बिन्ति ॥' एक बार ग्रन्थि भेदन हो जानेपर जीव मुक्तिकी ओर अवश्य अग्रसर हो जाता है। आगे तीनों करणोंका पृथक्-पृथक् विवेचन इष्ट है - अध:प्रवृत्तकरण पं० सुखलाल के शब्दोंमें . अत्यल्प आत्मशद्धिको जैनशास्त्रमें यथा प्रवृत्ति करण कहते हैं। अनेक प्रकार से शारीरिक और मानसिक दु:खोंकी संवेदनाओंको सहन करते हुए और संसार चक्रमें भ्रमण करते हुए जीवको पूर्वोक्त चार लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । चतुर्थ लब्धिके परिणाम स्वरूप कर्मका आवरण बहुत अधिक शिथिल हो जाता है, जिसके फलस्वरूप ही आत्मामें स्व नियन्त्रणकी शक्ति आ जाती है और वह तीव्रतम (अनन्तानुबन्धी) क्रोध, मान माया और लोभपर नियंत्रण करने लगता है। यहींसे कर्म विजयकी यात्रा प्रारम्भ हो जाती है। डॉ० सागरमलके शब्दों में इस अवस्थामें चेतन आत्मा और जड कर्म संघर्षके लिए एक दूसरे के समक्ष आ जाते हैं । इस प्रकार इस करणमें आत्मा वासनाओंकी शक्तिके समक्ष संघर्ष के लिए खडे होनेका साहस करता है। इस अवस्थामें कभी कभी मोहवश अर्जुन की युद्धपूर्व वृत्तिके समान पलायन वृत्ति भी आ जाती है, परन्तु देशनालब्धि द्वारा प्राप्त गुरूपदेश, उसे इस पलायनवृत्तिसे रोक लेता है। अध:प्रवत्तकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । “अन्त्तोमुहुत्तोमेत्तो तक्कालो होदि तत्थ परिणामा:” | ख. अपूर्वकरण___ अपूर्वकरणकी परिभाषा करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है- “करणा: परिणामा: १. श्रावक प्रज्ञप्ति, गाथा ३२, बम्बई, विक्रम सम्वत् १९६१, उद्धृत जैन एथिक्स पृ० २०९ २. श्रावक प्रज्ञप्ति गाथा ३३ ३. वैशाली इंस्टीच्यूट रिसर्च बुलेटिन नं० ३, हिन्दी भाग पृ०८१ ४. . स्टडीज़ इन जैनिज़म फिलॉसफी, पृ० २७१ ५. डॉ० सागरमल, रिसर्च बुलेटिन नं०३,पृ० ८२ ६. गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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