Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 211
________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८९ हैं और इस प्रकारके परिणामोंको विकसित करने वाली प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती है। __ इस अवस्थामें सबसे अधिक. शक्तिशाली (अनन्तानुबन्धी) कषायोंका समूल नाश हो जाता है और दर्शनमोह कर्मपर भी पूर्णतया विजय प्राप्त हो जाती है । दर्शनमोह कर्मको विजय करने के लिए, इस अवस्थामें एक विशेष प्रकारकी प्रक्रिया होती है, जिसे अन्तरकरण कहते हैं अन्तरकरणमें कर्मों की अटूट पंक्ति टूटकर दो भागों में विभाजित हो जाती है - एक पूर्व स्थितिमें और दूसरी उपरितन स्थिति में । दोनोंके बीचमें अन्तर अर्थात् रिक्तता आ जाती है। दर्शनमोहके नष्ट होनेसे मिथ्यात्व नामक प्रकृति तीन भागोंमें विभाजित हो जाती है, जिन्हें क्रमश: सम्यक्त्व मोह, मिथ्यात्व मोह और मिश्रमोह कहा जाता है। डॉ० सागरमलने इन तीनों प्रकृतियोंका दृष्टान्त देते हुए कहा है कि- सम्यक्त्व मोह श्वेत काँचका आवरण है, मिश्रमोह हल्के रंगीन कांचका आवरण है और मिथ्यात्वमोह गहरे रंगीन काँचका आवरण है। पहले में सत्यका स्वरूप वास्तविक दिखाई देता है, दूसरे में कुछ विकृत रूपमें और तीसरेमें उससे भी अधिक विकृत दिखाई देता है। यह मध्यान्तर एक अन्तर्मुहूर्त समय तक रहता है । इसके पश्चात् यथार्थ दृष्टिकोणको प्राप्त करकेजीव विकासके अग्रिम सोपानोंपर चढ जाता है । अनिवृत्तिकरणका काल भी एक अन्तर्मुहूर्त मात्र माना गया है ।' ग्रन्यिभेदका विविध ग्रन्थि भेदकी यह प्रक्रिया दो बार होती है पहली बार प्रथम गुणस्थानके अन्तिम चरणमें और दूसरी बार सातवें, आठवें और नवें गुण स्थान में । इसका कारण यह है कि मोहनीय कर्मकी दो शक्तियाँ होती हैं - दर्शनमोह और चारित्र मोह। प्रथम गुणस्थानके अन्त में जीव दर्शनमोहकी शक्तिपर विजय प्राप्तकरता है और दर्शनविशुद्धिको प्राप्त होता है अर्थात् जीवकी श्रद्धा मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें परिणत हो जाती है । परन्तु जैन दर्शनके अनुसार साधनाकी पूर्णता दर्शन - १. जैन एथिक्स, पृ०२१० २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० ४६७ ३. पूर्व निर्दिष्ट कर्मबन्ध अधिकार ४. वैशाली इंस्टीच्यूट, रिसर्च बुलेटिन नं. ३, पृ० ८३ ५. षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, सूत्र ४, पृ० २२१ ६. पूर्वनिर्दिष्ट, कर्मबन्धके भेद , मोहनीयकर्म ७. पूर्वनिर्दिष्ट, करणलब्धि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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