Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 205
________________ कर्ममुक्ति का मार्ग संवर निर्जरा १८३ 1 जाता है । वह स्वदोषोंका दर्शक और पर गुणका ग्राहक हो जाता है । उसमें नि:स्वार्थ सेवा तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आदि गुणोंकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है ।' विशुद्धि लब्धिको प्राप्त जीवके उक्त गुणोंकी तुलना गीताकी दैवी सम्पदासे की जा सकती है, क्योंकि दैवी सम्पदा प्राप्त पुरूषमें भी उपरोक्त लक्षणों का वर्णन किया गया है। मूलाचारमें निर्दिष्ट उपगूहन (स्वदोषों का और पर गुणों का दर्शन, परदोषोंका और स्वगुणों का गूहन ) और वात्सल्य आदि गुणों से भी विशुद्धिलब्धि प्राप्त जीवके गुणोंकी साम्यता दृष्टिगोचर होती है । इस प्रकार विशुद्धिलब्धिको प्राप्त जीव, अपने दैवी गुणों द्वारा अशुभ कर्मों का उन्मूलन कर देता है और शुभ कर्मों के द्वारा सुखका उपभोग करता है । ३. देशना लब्धि द्वितीय विशुद्धिलब्धिके परिणाम स्वरूप जीवका अभिमान मन्द हो जाता है और मृदुताकी अधिकता हो जाती है । अन्त: करणके शुद्ध हो जाने पर जीवको ऐसे गुरूकी प्राप्ति हो जाती है जो उसे षट्द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) और नव पदार्थों (जीव, अजीव, आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप) का उपदेश देता है । इस प्रकार उपदेश देने वाले गुरूकी प्राप्ति और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण और विचारण शक्तिके समागम को देशना लब्धि कहते हैं । उपदिष्ट अर्थको ग्रहण करनेपर ही देशना लब्धि संभव है, अन्यथा नहीं । इसका प्रतिपादन करते हुए भगवती आराधना में कहा गया है कि शब्दको सुनकर उसके अर्थको समझ लेना, परन्तु श्रद्धा सहित चिन्तन मनन पूर्वक ग्रहण न करना देशना नहीं कहलाता, क्योंकि चिन्तन-मननके बिना सुना हुआ भी निरर्थक हो जाता है श्रद्धान सहचारि-बोधाभावाच्छुतमप्यश्रुतमिति”५ पुरुषार्थसिद्धयुपायमें भी कहा गया है कि जो केवल शब्द मात्रके व्यवहार को साध्य मानता है, वह देशना नहीं है। १. कर्मरहस्य, पृ० १९४ २. श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १६, श्लोक १-३ ३. मूलाचार, गाथा २० ४. (क.) छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसू रिपहुदिलाहो जो । देसिदपदत्य धारणलाहो वा तदियलद्धी दु ॥ लब्धिसार, गाथा ६ (ख.) षटखण्डागम, धवला टीका, पुस्तक ६, खण्ड १, पृ० २०४ ५. भगवती आराधना, विनिश्चय टीका, गाथा १०५, पृ० २५० ६. पुरूषार्थसिद्धि उपाय, श्लोक ६ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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