Book Title: Jain Darshan me Karma Siddhanta Ek Adhyayana
Author(s): Manorama Jain
Publisher: Jinendravarni Granthamala Panipat

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Page 202
________________ जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त - एक अध्ययन आहारका त्याग करना अनशन है, भूखसे कम भोजन करना अवमौदर्य है, वस्तुओं को सीमित करना वृत्ति परिसंख्यान है, जिह्वा की लालसा का पोषण करने वाले घी, दूध आदि रसोंका त्याग करना रसपरित्याग है, एकान्त स्थानमें रहना विविक्तशय्यासन तप है, सर्दी-गर्मी और विविध आसनों के द्वारा शरीरको कष्ट देना काय क्लेश तप है ।" १८० बाह्य द्रव्यों की अपेक्षासे रहित अन्यके द्वारा दिखाई न देने वाला, मानसिक क्रिया प्रधान तप, ' आभ्यन्तर तप' कहलाता है । ' आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का होता है, जैसा कि तत्त्वार्थ सूत्रमें कहा गया है – “प्रायश्चित विनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्" धारण किए हुए व्रतमें प्रमादजनित दोषका शोधन करना प्रायश्चित है, ज्ञान तथा ज्ञानके धारण करनेवालों में आदरभाव रखना विनय है, योग्य साधनों के द्वारा सेवा सुश्रुषा करना वैयावृत्ति है, ज्ञान प्राप्तिके लिए विविध प्रकारका अध्ययन करना स्वाध्याय है, अहंकार और ममत्वका त्याग करना व्युत्सर्ग है। और चित्तके विक्षेपोंका त्याग करना ध्यान है ।" गीतामें शारीरिक, वाचसिक और मानसिक इन तीन प्रकारके तपका उल्लेख प्राप्त होता है ।" ये तीनों तप जैन मान्य आभ्यन्तर तपसे समानता रखते हैं । इस प्रकार बाह्य तथा आभ्यन्तर विविध प्रकारके तपसे कर्मों की निर्जरा करके मोक्षकी प्राप्तिकी जाती है राजवार्तिकमें कहा गया है कि जो जीव मन, वचन और काय गुप्तिसे युक्त होकर अनेक प्रकारसे तप करता है वह मनुष्य विपुल कर्म निर्जरा करता है । पूज्यपादजीने समाधिशतकमें कहा है आत्मदेहान्तर ज्ञानजनिताहलादनिर्वृतः तपसा दुष्कृतं घोरं भुंजानोऽपि न खिद्यते ॥ ७ १. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३८ २. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ९, सूत्र २० ४. सर्वार्थसिद्धि, पृ० ४३९ ५. भगवद्गीता, अध्याय १७, श्लोक १४-१६ ६. राजवार्तिक, पृ० ५८४ ७. समाधिशतक, श्लोक ३४ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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